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साधना पथ
ज्ञानी के वचन जीव मान्य करे तो यह भेद दूर हो जाए। भ्रान्ति निकल जाए। जो जाने वह चेतन है, ज्ञान वह चेतन है। जागृति की जरूरत है। ज्ञान न हो, तब तक जागृत रहना। जब तक ज्ञानीपुरुष यों न कहे कि ज्ञान हुआ है, तब तक ज्ञानी हूँ, ऐसा मानना नहीं। मुझे जानना है, ऐसा रखना। स्वयं को ज्ञानी मान ले तो फिर किसी के पास से जानना वंद हो जाएँ। अतः फिर बोध भूल जाए और ज्ञान नहीं हो। मुझे ज्ञान है, ऐसा मानने में हानि है। अतः न मानने में लाभ है।
तीर्थंकर विचरते थे तब गणधर जैसे भी "भगवान जानते हैं। इस तरह रहते। (आनंद, गौतमस्वामी का दृष्टान्त उपदेश छाया-४) गौतमस्वामी ने ज्ञानी होते हुए भी देखा नहीं, उपयोग दिया नहीं। जाकर प्रभु से पूछा। पर इस से ज्ञान क्या जाता रहा? न मानने में कुछ गलत नहीं। 'मैं जानता हूँ', ऐसा मानना जीव को अच्छा लगता है, पर वह हानिकारक है, अशांति कर्ता है। मुझे सब मालुम है, ऐसा अभिमान हो तो ज्ञानी का कथन बैठे नहीं। गुणग्राही बनना। ज्ञानी का कहा मानना। ज्ञानी ने सत्य वस्तु जानी, वह अपने काम की है। जगत में कुछ भी प्रिय करने जैसा नहीं और "जो कुछ प्रिय करने योग्य है वह जीव ने जाना नहीं" (श्री.रा.प.-१९८) इतना हृदय में रहे तो काम हो जाए। प्रिय करने जैसा है वह ज्ञानी ने जाना है, सचेत रहे तो आगे बढ़े। जीव मर ही रहा है, विषय-कषाय रूप मृत्यु से जीव की आत्मशक्ति को हनन हो रहा है। जीव के ज्ञान के साथ जहर है, जिससे आत्मा मर रहा है। ज्ञानी की समझ से तैर सकता है। अपनी समझ से डूब रहा है। ज्ञानी ने क्या कहा, वह विचारें। अपनी समझ पर रख शून्य और चौकड़ी लगा दें, इस तरह प्रभुश्रीजी कहेते थे। अपनी समझ से अनादि से भटक रहा है। अन्य से उदास बनें तभी आत्मवृत्ति होगी। जड़ वस्तु विष जैसी है। जगत सब ठग जैसा है, जहाँ जाओगे ठगे जाओगे। कोई समझवाला हो तो वह जीत जाए।