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साधना पथ काम, मान और अधीरज, ये बड़े दोष हैं। प्रत्येक कार्य करते या बोलते जल्दी न करें, विचार कर बोलें। मैं बोल रहा हूँ, वह हितकारी है या नहीं? थोड़ा होता हो, तो थोड़ा काम करना, जल्दी न करें। विचार की कमी (खामी) है।
(५०) बो.भा.-१ : पृ.-१३१ "देह, मैं नहीं।" यों होना चाहिए। उसके बदले उल्टा मानें तो मिथ्यात्व है। जीव जड़-चेतन को एक मानता है, पुद्गल-संयोग में अहंभाव कर बैठा है, ममता हो गई है, यह तादात्म्य अध्यास है। “सर्व विभाव पर्याय में मात्र स्वयं को अध्यास से एकता हुई है उससे केवल अपनी भिन्नता ही है।" (श्री.रा.प.-४९३) पुद्गल का संयोग हुआ है, उस में मैं की बुद्धि है, मनुष्य पर्याय में 'मेरा' हो गया है। ज्ञानादि आत्मा के गुण हैं। राग-द्वेष विभाव है, वह अपना मूलस्वरूप नहीं है। "मैं गोरा, मैं काला' ये सब पुद्गल के पर्याय हैं। जैसी अवस्था हो, वैसा जीव अपने को मानता है। अनादि स्वप्नदशा है, इस से अहं-ममत्व भाव हो गया है। स्व-पर का विवेक नहीं, वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व का तीव्र उदय हो, तब सब उल्टी समझ आती है। समझ बदले तो सम्यग्दर्शन हो। मिथ्यात्व मंद पड़े तब समकित होता है और तभी जीव की रुचि होती है। जैसा संग वैसा रंग लगता है। पुद्गल और जीव अलग हैं। यथार्थ ज्ञान हो, तो भेद पड़ता है। परा भक्ति अर्थात् भगवान और भक्त में भेद न रहना। वह ज्ञान दशा ही है। अनन्तानुबंधी जाते ही वीतरागता प्रगट होती है। सम्यग्दर्शन है, वहाँ अंश वीतरागता है। संसार में से वृत्ति उदासीन हो, तब परम वीतराग अर्थात् जिसने चैतन्यस्वरूप प्राप्त किया है, उसमें जुड़ जाएँ, लग जाएँ। जगत के सब पदार्थों से वृत्ति उठ कर शुद्ध स्वरूप में प्रीति होती है। स्वयंवर में जैसे कन्या मन ईच्छित वर के गले में हार डालती है, वैसे जगत के पदार्थ न रुचें, तब भगवान में प्रीति होती है। आसक्ति बदलने के लिए भगवान को पति कहा है।