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साधना पथ उत्पन्न होता है और यदी सत्संग मिले तो वैराग्य यथार्थ होता है। आत्मा के सिवा कहीं भी रस न हो, आसक्ति न हो, वहाँ वैराग्य है। संसार का मोह कम करने के लिए वैराग्य की जरूरत है। छः पद का विचार करना।
आत्मा नित्य है, वह मरनेवाला नहीं। संयोग छूटे पर आत्मा तो नित्य है। पर्याय के नाश से वस्तु का नाश नहीं होता। आत्मा, त्रिकाल में रहनेवाला पदार्थ है। संयोगों का सदुपयोग करना। घबराना नहीं। विवेक की जरूरत है। ज्यों ज्यों सत्पुरुषों के वचनों में वृत्ति रहेगी, त्यों त्यों आनंद आएगा और ज्ञानी ने क्या कहा है, उस का लक्ष्य बँधेगा। छः पद का विचार जरूर करना है। “आत्मा कभी मरती नहीं।" इस तरह आत्मा की प्रतीति हो तो भय नहीं लगता। अनित्य पदार्थ के मोह के कारण नित्य पदार्थ का विचार नहीं आता है। अनित्य पदार्थ में जब तक वृत्ति रहेगी, तब तक नित्य पदार्थ की नित्यता नहीं लगेगी। अनित्य और नित्य पदार्थ का भेद करना है। इसके लिए बहुत पुरुषार्थ चाहिए।
(४२) बो.भा.-१ : पृ.-१२२ सत्संग करना। रोज नया कुछ सीखना। देह में आत्मा रही हुई है, वह देह से भिन्न है, उसके लिए भक्ति-वांचन आदि करना है। सत्संग के योग से जीव को अच्छे भाव रहते हैं। वह योग जब न हो तो ज्ञानी पुरुष के वचन विचारना। अन्यत्र वृत्ति रहे तो कर्म बंध होता है। ज्ञानी के वचनों में वृत्ति रहे तो कर्म छूटते हैं। कुछ न बने, तो स्मरण करो। जीभ को क्या काम है? उसे स्मरण सौंप देना। स्मरण की आदत पड़ी हो, तो मृत्यु समय याद आने से समाधिमरण हो सकता है।
स्त्रियाँ, ज्ञानीपुरुष के वचन को झट मान्य कर लेती हैं। तीर्थंकर भगवान के समय में भी साधु और श्रावकों की अपेक्षा स्त्रियाँ (साध्वी और श्राविकाएँ) अधिक थी। ब्रह्मचर्य पालन में स्वाद को कम करना। सहजात्मस्वरूप और नवकारमंत्रमें भेद नहीं। ज्ञानीकी आज्ञा को अनुकूल होना है। मैं जानता हूँ, समझता हूँ ऐसा कहना समझदारी नहीं हैं। धर्मध्यान में चित्त रखना है। भवभीर हो तो धर्म होगा।