________________
साधना पथ
संसार का स्वरूप ऐसा ही है। अतः आत्मा का काम पहले कर लेना चाहिए। विचारवान पुरुष पहले से ही, इस संसार में मेरा कोई नहीं, यों हृदय में स्पष्ट कर रखते हैं, जिससे मृत्यु का दुःख लगता नहीं। बुद्धिशाली जीव अपने परिणामों को देखता है और संसार के प्रति कुछ आसक्ति हो तो उसे छेद डालता है। संग में जीव को मोह है, उसका फल दुःख है। मेरा नहीं, ऐसा मानने वाले को दुःखी नहीं होता। असंग व्यक्ति परम सुखी है। संग से छूट कर असंग होना है। असंग एकदम बन नहीं सकते, सत्संग से शक्य है। जो मोक्ष में गए हैं, वे संसार के तीक्ष्ण बंधन को छेद कर गए है। सूक्ष्म विचार बिना समझ नहीं होती।
मृत्यु से पूर्व मोह का क्षय कर लेना चाहिए। किसी की मृत्यु हो तो विचार करें कि इसकी देह छूट गई इसी तरह मेरी भी छूट जाएगी। मैं प्रमाद में पड़ा रहा तो मेरी क्या दशा होगी? धर्म के काम में ढील नहीं करनी चाहिए। मृत्यु सिर पर है, ऐसा लगे तो खाना-पीना कुछ अच्छा नहीं लगता। क्षण क्षण आयु क्षय हो रहा है, जीव को इसका पता नहीं। जागृत होना है। पल भर में देह छूट जाती है। मृत्यु समय जीव सोचता है कि सब नाशवंत है, पर फिर भूल जाता है। बुद्धिशाली जीव ही इस वैराग्य को टिका रखते हैं और अपने जीवन में परिवर्तन लाते हैं। सत्संग में कषाय की मंदता होती है, सुविचारणा जगती है। सत्संग में जो सुविचार आएँ, वे निरंतर चालू रहें, ऐसा करना चाहिए। जीव यदि लक्ष्य रखे तो हो सकता है। समय - समय कर्म बंध होता है। अतः समय-समय उपयोग रखना है। सर्वसंग जितना है, सब अहितकारी है। जिसे असंग बनना है, उसे संग का त्याग करना चाहिए। जितना संग छूटे उतना असंग बनें। मेरा कुछ नहीं है, यह विचार करना।
(४१) बो.भा.-१ : पृ.-१२२ मृत्यु का विचार भय के लिए मत करें, परन्तु समाधि मरण की तैयारी करने के लिए करें। सम्यकदर्शन होने से पूर्व भी जीव को वैराग्य