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साधना पथ
संयोगों को भोगे बिना छुटकारा नहीं। बाह्य त्याग भी अन्तर्त्याग के लिए है। आत्मा का कोई कर्तव्य नहीं। अकर्तव्य दशा पाने के लिए त्याग करना चाहिए। आत्मा तो अकर्ता है। किसी जगह व्यवहार संयम का निषेध किया है। मेरु पर्वत जितने मुंहपत्ती-ओघे किएँ, यह जो कहा वह निषेध के लिए नहीं, पर परमार्थ संयम पाने के लिए है। ज्ञानी का आशय समझना, श्रुतज्ञान है। वस्तुतः आत्मा को आत्मा स्पर्श करती है। अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख की श्रद्धा नहीं। “दृश्य को अदृश्य किया, और अदृश्य को दृश्य किया, ऐसा ज्ञानियों का आश्चर्यकारक अनन्त ऐश्वर्य वीर्य वाणी से कहा जा सकने योग्य नहीं है।" (श्री.रा.प.६४८) पाँच इन्द्रियाँ और मन रुके तब आत्मा का भान होवें। अल्प संसारी को कषाय भी अल्प होते हैं। मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व में रुचि करना है। श्री.रा.उपदेशछाया-१४ (१५३) बो.भा.-२ : पृ.-३९१
संसार तेरन (पार करने) का कामी वह है कि सिर माँगे तो दे दे। श्रद्धा परम दुर्लभ में दुर्लभ है। ज्ञानी जानते हैं कि शास्त्र किस लिए पढ़ना। जहाँ तहाँ से हितकारी वस्तु ग्रहण करना।
सत्पुरुष की देह सत्पुरुष नहीं, पर सत्पुरुष की आत्मा सत्पुरुष है। यह लक्ष्य रहे तो श्वेताम्बरी या दिगम्बरी कोई आग्रह नहीं रहता। महावीर प्रभु का गर्भ हरण हुआ होगा या नहीं? इसकी क्या जरूरत है? चाहे कहीं से भी भगवान आएँ, पर ज्ञान-दर्शन-चारित्र थे या नहीं? यह विचार करना। क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, पर सम्यक्दर्शन है या नहीं? यह देखना है।
संसार की जरूरत हो तो पुण्य तरफ नजर रखना। मोक्ष चाहिए तो पुण्य-पाप दोनों दूर करने पड़ेंगे। पुण्य का सुख ऊपर से दिखता है, अतः लोग उसे सुखो कहते हैं, पर अंतर में तो दुःखी है। ममता से सारा भव हार जाते हैं। पुण्य जब दुःखरूप लगेगा तब समझ आई कहलाएगी।
'जो होय पूर्व भणेल नव पण, जीवने जाण्यो नहीं; तो सर्व ते अज्ञान भाख्यु, साक्षी छे आगम अहीं।'