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साधना पथ बाँधता है। विषयों को तथा हिंसा आदि पाँच बड़े पापों को तो जीव याद भी नहीं करता और छोडता नहीं है। किन्तु संवत्सरी चौथ की करना, पंचमी की संवत्सरी करें तो पाप लगता है, ऐसी मिथ्या कल्पना करता है। जिसकी वृत्ति विराम पाई नहीं, पाँच इन्द्रियाँ और मन वश नहीं हुआ, छ: काय की रक्षा नहीं करता, हिंसा आदि करता है, वह सब अविरति का वर्तन है। व्रत तो समकित होने के बाद आते हैं। उससे पूर्व अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए व्रत नियम करें तो अनुचित नहीं है। जीव को देहाध्यास है। 'वचन मैं हूँ, देह मैं हूँ' ऐसा हुआ है। देह अपवित्र है, उसे पवित्र मानता है। अनित्यको नित्य मानता है, यह उल्टी समझ छूटें तो मिथ्यात्व छूटें। क्षण-क्षण आत्मा का काम करने के लिए मानव भव मिला है। एक समय का प्रमाद करने की भगवान ने गौतम को ना कही है। हम तो सारा दिन प्रमाद में बिताते हैं। प्रमाद का राज्य चलता है। जगत में सब बातें करते हैं कि कितनी तपस्या हुई, पर कृपालुदेव कहते हैं कि पहले मिथ्यात्व निकालो, तप की बात बाद में। सत्पुरुष मिलने पर भी प्रमाद हैं कि “बाद में करूंगा।" श्री.रा.उपदेशछाया-१३ (१५२) बो.भा.-२ : पृ.-३९१
कषाय मंद हो तो धर्म होवें। कषाय की वृद्धि करें तो सब अज्ञान है, करे कषाय, माने धर्म। तपा-ढूंढिया अनादि काल से नहीं है। वीतराग मार्ग ही अनादि का है। राग-द्वेष और अज्ञान मिटाने का मार्ग अनादि का है। इन्हें कम करे तो कल्याण होवें। ज्ञानी के मार्ग की आराधना करने के लिए मुनिजन सब शास्त्र सीखते हैं, पुनरावर्तन करते हैं। जिससे समय का सद्उपयोग सहज होता है, कुछ साधुलोग शास्त्र का अभ्यास नहीं करते और झट गोचरी के लिए चले जाते हैं, सो ठीक नहीं। राग-द्वेष और अज्ञान जाने के लिए सद्गुरु का बोध और सद्विचार है। विचार न करें, उसे संसार पार होने का मोका नहीं मिलता। सिर्फ श्रवण करें और विचार न करें तो निष्फल है। “माषतुष-माषतुष" करते मुनिने विचार किया कि भिन्न क्या है?(माष-उड्द, तुष-छिलका) दोनों वस्तु अलग है, इसी तरह आत्मा और देह अलग है। ऐसा करने से केवलज्ञान हुआ।