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साधना पथ
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श्री. रा. प.-६८९
(१३४) बो. भा. - २ : पृ. २९५ पूज्यश्री :- मृत्यु के प्रसंग पर, अर्थात् कोई युवक मर जाएँ तो संसार असार लगता है, अनित्य लगता है, अशरण लगता है । खेद के प्रसंग में खेद करें तो कर्म बंध होता है, अतः इसका दूसरा रास्ता लेना। मोह से खेद करें तो कर्म बाँधे। यह ही खेद यदि वैराग्य सहित हो तो छूट जाएँ, मोह सहित खेद हो तो कर्म बंध होता है ।
ममत्व जिसे होता हो वह विचारवान हो तो विचारे करें कि मेरा किसलिए ? मेरा-मेरा कर के कोई मोक्ष में नहीं गया। विचारवान हो तो बारंबार यह प्रसंग याद करें, इससे वैराग्य तरफ वृत्ति हो जाती है। मुझे किसी में ममत्व नहीं करना । ममत्व यदि अंतरंग में लगता हो तो उसका त्याग करो। मरते समय यदि ममत्व रहा, तो समाधि मरण नहीं होगा। मृत्यु समय कोई बचाएगा नहीं। ये सब संग तुच्छ हैं। आत्मा से सब हीन । ये अनित्य पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं । 'मेरा मेरा' यह भाव होता हो तो इसे मृत्युके पहले छोड । सारी जिंदगी मेरा मेरा करोगे तो भी तेरा होगा नहीं । मेरा मेरा करने से मेरा होनेवाला नहीं, यह विचारक सोचता है । कोई किसी को शरण देने वाला नहीं, सब मृत्यु को शरण है । वस्तुओं में जितना मोह, उतना अविचार है। उत्तम में उत्तम वस्तु आत्मा है। इसे छोड़ कर दूसरे को लेने जाएँ तो यह मिथ्यात्व है, मूर्खता है। मोह गए बिना मोक्ष नहीं होता । अनन्त काल तक भ्रमण कराने वाला मोह है । दुःखी होना हो तो मोह करो। समझ से मोह छोड़ देना । मोह से सदैव दूर रहना, इसके जैसा अन्य सुख का मार्ग नहीं। ऐसे विचार से वैराग्यवान वैराग्य के भाव करता है | विचार करें तो सबको ऐसा ही लगता है।
मृत्यु, वैराग्य का कारण है। सिर पर मौत है तथापि जीव मोह में फँसा है। जो मौत न होती तो धर्म को कोई याद भी न करता । भोगभूमि के मानव को मौत का विचार आता ही नहीं। हम किसी को मरते देखें तो मौत याद आती हैं, ऐसे समय भी विरले ही जागृत होते हैं । जागृत होने के प्रसंग पर थोड़ी देर स्मशान-वैराग्य आकर नाश हो जाता है। हलुकर्मी