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साधना पथ भावना से उपदेश देना। दुषमकाल कहने का कारण है कि इस काल में सत्पुरुष की भक्ति, गुणग्राम मिलता नहीं। जहाँ आत्मज्ञान है, वहाँ से अपना कल्याण होगा। ____आत्मार्थ मत भूलो। जो भी करो, आत्मार्थ के लिए करो। आत्मा का कल्याण हो वैसा करो। आत्मा चिन्तामणि रत्न जैसा है। जो माँगो वह मिले, पर माँगने आना चाहिए। आत्मज्ञान होने के बाद मोक्ष तुरन्त नहीं होता। कर्म बाकी हों तो भव लेने पड़ें। आत्मार्थ अर्थात् राग-द्वेष में न जाना। समभाव रखना। कैसा भी तप कर के मुझे राग-द्वेष निकालना है, ऐसा लक्ष्य हो, तो सफलता मिले। वर्ना 'तपसी तो लपसी' पड़े। (लपसी = फिसल जाना) श्री.रा.प.-६२६
(१३३) बो.भा.-२ : पृ.-२६२ जीव निमित्तवासी है। मुनिओं की बात अलग है, परन्तु सामान्य जीवों की अपेक्षा तो यह एक सिद्धान्त जैसी बात है। मुनि तो किसी भी स्थान पर, बाजार में भी ध्यान कर सकते हैं। पर सामान्य जीवों को तो जैसा निमित्त मिले, वैसा हो जाता है, अतः निमित्तों से बहुत संभलना। अच्छे निमित्त में रहना। कहावत है कि निमित्तवासी जीव है, जब तक अच्छे निमित्त से अच्छे भाव और बुरे निमित्त से बुरे भाव हों, तब तक अच्छे निमित्त में ही रहना। अपना जीवन देखें तो ज्ञानीके वचन सत्य लगे की निमित्त मिलते ही वैसा मैं हो जाता हूँ। उपाध्यायजी यशोविजयजी ने कहा है;
'जेम निर्मलता रे रत्न स्फटिक तणी, तेम ज जीव स्वभाव; . ते जिन वीरे धर्म प्रकाश्यो, प्रबल कषाय अभाव।'
जीव स्फटिक रत्न जैसा है, तथापि जैसा निमित्त मिले, वैसा बन जाता है। मनुष्य देह मिले तो मनुष्य जैसा, पशु देह मिले तो पशु जैसा बन जाता है। इन सब का कारण कर्म है। अतः कर्म बाँधते समय ध्यान रखना। अच्छे निमित्तों की भावना करना। निमित्तों को उल्लंघने वाली कृपालुदेव की बात अलग है। सम्यकदर्शन बचाता है। सभी को अपने संग-प्रसंग से भाव कैसा होता है, वह विचारें तो पता चले।