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साधना पथ श्री.रा.प.-५२२ . (१२८) बो.भा.-२ : पृ.-१८६
संसार में भटकने का कारण अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं। ये कषाय जीव को कल्याण करने में बाधकरूप हैं। ज्ञानीपुरुष की पहचान जीव को ज्यों ज्यों होती है, त्यों त्यों अनन्तानुबन्धी मंद पड़ने लगते हैं। वे मंद पड़ें तो सब कषाय मंद पड़ने लगते हैं। ज्ञानीपुरुष की यथार्थ पहचान जिसे हो, उसे संसार में ज्यादा भटकना नहीं पड़ता। संसारी जीव उल्टी समझ के कारण भटक रहे हैं। जीव जब तक मत-मतांतर में हो, तब तक आग्रह रहता है। ज्ञानी की पहचान होने के बाद मताग्रह, दुराग्रहादि भावों की मंदता होती है। दूसरों के दोष देखता था, अब अपने दोष देखने लगता है। मुझे शुद्ध होना है, यही भावना होती है। ज्ञानी का योग होने से ही धर्म की शुरुआत होती है। अपने दोष देखने की आदत पड़ती है। दूसरों के दोष न देखें पर अपना दोष देखनेसे मुमुक्षुता प्रगट होती है। जीव अपने स्वरूप को भूल कर बाह्य वस्तुओं में लगा रहता है। राज कथा, भुक्त (भोजन) कथा, स्त्री कथा, देश कथा, इन चारों विकथाओं में इसे नीरसता लगती है। विकथा कर्म बंध का कारणरूप लगती है। सत्पुरुष का योग होने के बाद तुच्छ वस्तुओं में मन नहीं रहता। पर अच्छे वांचन विचार में रहता है। मेरा कल्याण कैसे हो? ऐसी भावना जगती है, ज्ञानी के मुख से सुना कि जगत सारा नाशवंत है, सब संयोग जो मिले हैं, उनका वियोग होगा। एक आत्मा ही तीनों काल में रहने वाला है। अब अवसर हाथ में आया है, तो व्यर्थ न गँवाउँ। थोड़े काल में कल्याण करने की भावना करें। सब यहीं पड़ा रहेगा। बारह भावना का विचार करें तो वृत्ति आत्मा में रहे। ज्ञानी का योग होने के बाद त्यागवैराग्य विशेष वृद्धि पाने लगता है। मोक्ष का मार्ग सच्चा लगने लगता है। सारा वर्तन - व्यवहार पलट जाता है। महान पुण्य से ही सत्पुरुष का योग होता है।
. पुरुषार्थ करें तो अपूर्वता जगती है। सब जीव सुख चाहते हैं, पर सच्चे सुख़ को जानते नहीं। इन्द्रियों के विषय आत्मा को लूटने वाले हैं।