________________
१६६
साधना पथ श्री.रा.प.-५०९
(१२७) बो.भा.-२ : पृ.-१७६ काया और आत्मा दोनों अलग पदार्थ हैं। जो पदार्थ जुदा हो वह जुदा हो सकता है। जैसे गर्म करने से दूध और पानी अलग होते हैं, वैसे जीव और काया क्रिया करने से अलग होते हैं। देह, कर्म का फल है। जिसने जीव न जाना हो वह भी क्रिया होते देख कर “जीव है" यों कहता है। ज्ञान हो तब स्पष्ट जुदा लगता है।
प्रश्नः- “दोनों पदार्थ अलग हैं तो इसे वेदना किससे होती है?"
पूज्यश्रीः- सूर्य का ताप लगने से जैसे पत्थर गर्म हो जाता है और सूर्यास्त बाद भी थोड़ी देर तक गर्म रहता है, वैसे अज्ञानरूपी सूर्य से तप्त हुए जीव को वेदना रहती है जब तक देह है। पर आत्मज्ञान होने से भेद होता है। ज्ञानी पुरुष को देहाध्यास छूटा है, अतः फिर से वेदना उत्पन्न होने वाले कर्म नहीं बांधते। देह से आत्मा को भिन्न जानना नहीं भूलते।
'शारीरिक वेदना को देह का धर्म मान कर और बाँधे हुए कर्मों का फल जान कर सम्यक् प्रकार से सहन करना योग्य है।' (श्री.रा.प-४६०) ऐसा वे जानते हैं। वेदना सहते हुए विषम भाव न होना, ज्ञान का फल है। वेदना आत्म गुणों की घातक नहीं है। जिसे स्वरूपज्ञान हुआ है, उसे देह और आत्मा भिन्न लगते हैं। जो ज्ञान वेदना से चला जाता है, वह ज्ञान ही नहीं। ज्ञानीपुरुष को यों नहीं होता कि मुझे वेदना हुई हैं। वह जानता है कि वेदना तो देह को हुई हैं। यह देह का धर्म है। वेदना आत्मा को हानिकारक नहीं है। ज्ञानीपुरुषों को ज्ञान होने से विषम भाव नहीं होता, क्योंकि वे वस्तु स्वभाव को जानते हैं। जीव देहाध्यास के कारण मानता है कि मुझे वेदना हुई है। वेदनीय कर्म ज्ञान को आवरण नहीं करता। मोहनीय के कारण सब होता है। साता-असाता मोह से ही लगता है। अतः ज्ञानियों ने पहले मोहनीय का नाश करने को कहा है। साता हो तो अच्छा, असाता हो तो खराब, ऐसा लगे तो यह अज्ञान का ही लक्षण है। दोनों पदार्थ भिन्न समझने बाद यह अच्छा, यह बुरा, ऐसा कुछ नहीं लगता। सब का मूल वैराग्य है। जिसे वैराग्य हो, उसे ही ज्ञान होता है।