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साधना पथ किंमत नहीं हैं। यदि विचार करें तो एक पल भी अमूल्य रत्नचिंतामणि से भी विशेष मूल्यवान है।
शरीर प्रकृति नरम रहती हो तव उसमें एकाकार वृत्ति न होने देना। बुखार आया हो तब विचार करना कि देह गर्म हो गई है, वह बुखार जाने के बाद स्वयमेव ठंडी हो जाएगी। मात्र दृष्टा बने रहना, जिससे समता बनी रहेगी। मृत्यु आए तो आत्मा कहाँ मरती है? वह तो त्रिकाल नित्य है। देहको 'मेरी' मानी कि दुःख आया ही समझो। अतः ममत्व निकाल देना। जो होता है शरीर को होता है, उसे देखते रहना। जैसे वस्त्र जीर्ण होने पर बदल देते हैं, उसी तरह मृत्यु आने पर एक देह छोड़ देने पर दूसरी देह मिलती है। आत्मा मरती ही नहीं। रोग आने पर कोई दवा करनी पड़े तो कर लेना परन्तु लक्ष्य न चूकना। जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, ऐसी बुद्धि करना, जिससे भेदज्ञान हो। जैसे श्री नेमनाथ भगवान के पास जाकर गजसुकुमार ने कहा, कि मुझे मोक्ष जल्दी इसी भव में मिले, ऐसा मार्ग बताओ। तब भगवान ने स्मशान में जाकर काउसग्ग करने को कहा। उसने वैसा किया तो ससुर को क्रोध आने से गीली चिकनी मिट्टी लेकर सिर पर क्यारी बनाकर दहकते अंगारे भर दिए। तब गजसुकुमार मुनि ने उस पर जरा भी क्रोध न किया और विवेक पूर्वक विचार किया “यदि मैं इसकी पुत्री के साथ शादी करता तो यह मुझे कपड़ेकी पगड़ी बाँधता, जो फट जाती और संसार भ्रमण करना पड़ता। यह तो बहुत अच्छा हुआ कि इसने मोक्षरूपी पगड़ी बाँधी"। इस तरह चिंतन करते केवल ज्ञान पाकर मोक्ष गए।
__ पूर्व में मुनि भगवन्त शरीर को कष्ट देकर तपस्या करते थे। सूर्यताप में आतापना लेते थे। सर्दी में वस्त्र रहित होकर काउसग्ग करते थे, वह. इसलिए कि मरण के प्रसंग पर यदि वेदना आए तब समभाव रहे। सहन करने का पहले से ही अभ्यास डाला हो तो कैसे भी दुःख में सहनशीलता बनी रहती है। अन्यथा ऐसे प्रसंग पर कुछ भी याद नहीं आता।