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साधना पथ है। दूसरे लक्षणों से ज्ञायकता अत्यंत अनुभव का कारण है। इस में यदि रहे तो अनुभव हो। आत्मा कैन्यस्वरूप है। वह जाने विना रहे नहीं, क्योंकी जानना उसका स्वभाव है।
५. सुखभासः- सुख का भासन होना, जीव का एक लक्षण है। जड़ को तो “मैं सुखी" ऐसा कुछ होता नहीं। इन्द्रियों का सुख या समाधि सुख इन सबका मूल कारण खोजते, आत्मा है। आत्मा में सुख है। जड़ में यह गुण नहीं। मुझे आज मीठी नींद आई, यों कहते हैं। वहाँ सुख के दूसरे कारण न थे, आत्मा थी। आत्मा ही सुख का कारण है। सुख, आत्मा का गुण है। यह पुद्गल में नहीं रहता। यह जीव का ही लक्षण है। निद्रा के दृष्टान्त से यदि विचार करें तो सुखभास नामक लक्षण का पता लगता है।
६. वेदकताः- अर्थात् अनुभव करना। ज्ञायकता में जानना है और वेदकता में अनुभव करना है। जानने से वेदकताके अनुभव में फर्क है। इस स्वभाव के कारण वस्तु का अनुभव होता है। सुख-दुःख का जानना-देखना वह वेदकता नहीं, पर सुख-दुःख का अनुभव हो तब वेदकता कहा जाएँ।
७. चैतन्यताः- जीव, चेतन, आत्मा यह एक ही है। वेदान्त ने कहा कि मायावाला हो वह जीव और माया रहित हो वह आत्मा है। जैन धर्म में ऐसा भेद नहीं है। जीव दो प्रकार के हैं :- संसारी और सिद्ध। दोनों जीव है, चैतन्य गुणवाले हैं। सब पदार्थ आत्मा में प्रकाशमान होते हैं, वह चैतन्यता गुण के ही कारण है। चाहे कैसा भी चमकता सूर्य हो पर आत्मा न हो तो सूर्य को प्रकाशमान कहे कौन? सूर्य न तो जानने के लिए स्वयं समर्थ है और न ही समझाने के लिए। चैतन्यता में पदार्थ का प्रकाश पड़ता है। चैतन्यता स्व पर प्रकाशकता, आत्मा का गुण है। किस कारण जानने का कार्य होता है ? इसका बहुत विचार करें तो आत्मा हाथ में आ सकता है। 'जैसे घट-पटादि पदार्थ है, वस आत्मा भी है। अमुक गुण होने के कारण जैसे घट-पटादि होने का प्रमाण है, वैसे स्व-परप्रकाशक चैतन्यसत्ताका प्रत्यक्ष गुण जिसमें है ऐसा आत्मा होने का प्रमाण है।' जाननेवाले को छोड़कर जीव अभी अन्य-अन्य जानता है। यदि जानने वाले के प्रति उपयोग दे तो आत्मा का पता लगे।