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साधना पथ कल्पना है, उन दोनों का मेल नहीं होता। भ्रान्ति है वह कल्पना है। विपरीत कल्पना ही भ्रान्ति है, आत्मा अरूपी वस्तु है। भ्रान्ति के जितने भेद हो, वे सब भ्रान्तिरूप ही हैं। भ्रान्तिरूप आवरण अंधकार जैसा है, ज्ञान आए तो यह जाए। अज्ञान दशा में जीव कल्पना करता रहता है, कल्पना में ही सारा मानवभव गँवा देता है। अनंत बार मनुष्यभव मिलने पर भी आत्म सार्थक न हुआ। इसका कारण कल्पना है वह कोई सत् नहीं। कल्पना और सत् परस्पर विरोधी हैं, दोनों का मेल नहीं हो सकता। अज्ञान दशा में जितना करे वह सब उल्टा ही है। इससे छूटने का मार्ग भी है। सत् भ्रांति नहीं है, भ्रांति सत् नहीं है। इस भव में मुझे सम्यक्दर्शन करना ही है, ऐसी जिसकी दृढ़ मति हो गई है, उसे क्या करना वह अब कहते हैं। जीव समझा न हो तथापि मैं समझ गया, मैं जानता हूँ, ऐसा इसके मन में अहंभाव भर गया है। यह कैसे निकले? यह स्वयं से निकल नहीं सकता। मुझे पता नहीं, पर ज्ञानी जानते हैं, ऐसा यदि माने तो इतना जीवन में सत्य आया कहलाएँ। मैं कुछ नहीं जानता, ऐसा दृढ़ निश्चय करना। पुनः न छूटे, ऐसा दृढ़ निश्चय करें। अहंभाव ऐसा है कि दबाया हो तो भी फिर से फूट निकले, अपने से वह नहीं जाता, अतः मैं कुछ नहीं जानता। इस तरह ज्ञानी की शरण में जाएँ। क्योंकि जिसने पा लिया है वही दूसरों को दे सकता है। ज्ञानी के पास जाने से पूर्व इतना जरुर दृढ़ करें कि मैं कुछ नहीं जानता। “जाण आगळ अजाण थईए, तत्त्व लईए ताणी; आगलो थाय आग, तो आपणे थईए पाणी।" इतनी गरज जीव को हो तो मार्ग मिल जाए। पर अनंतानुबंधी कषाय, जीव का जहाँ से कल्याण होता हो वहाँ से आगे धकेल देता है। मिथ्यात्व उल्टी समझ कराता है, यह जीवके अंदर हो और ज्ञानी के पास जाएँ तो ज्ञानीपुरुष यदि कुछ दोष बताएँ तो कहे कि यह तो मेरे दोष देखता है। इस तरह द्वेष भाव हो जाएँ, वह अनंतानुवंधी क्रोध है। ज्ञानी जानते हैं और मैं कुछ नहीं जानता, जीव ऐसा माननेके बदले “मैं जानता हूँ", ऐसा मानें तो अनंतानुबंधी मान है। ज्ञानीपुरुष के पास जाएँ तो ऊपर ऊपर से अच्छा दिखाएँ और मन में यह