________________
१०८
साधना पथ ‘सत् कुछ भी दूर नहीं।' 'सत्' किसे कहते हैं? प्रत्येक वस्तु के लिए समय निकालकर विचार करें। सत् का अर्थ है; होना, अस्तित्व अर्थात् हयात। जगत के पदार्थ जो दिखते हैं, वे सब नाशवंत हैं। आत्मा नामका पदार्थ ऐसा है कि वह आत्मत्वरूप से तीनों काल में रहता है। सत् अर्थात् जो सदैव रहे। आत्मा सत् है अपने साथ तीनों काल में रहती है, त्रिकाल रहने वाली वस्तु सत् है। उसे खोजने के लिए सब धर्मों की स्थापना हुई है। आत्मा अविनाशी पदार्थ है। आत्मा, आत्मा से दूर नहीं, परंतु दूर लगता है।
सर्व प्रथम समझना है:- आत्मा है, आत्मा नित्य है, आत्मा कर्ता है, आत्मा भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्ष का उपाय है। आत्मा है, ऐसा लगे फिर इस की बंध अवस्था छूट कर मोक्षरूप अवस्था कैसे हो? उसकी तड़प जागे संसार में जहाँ देखो, वहीं दुःख है। सम्यक्दर्शन नामक गुण पलट कर मिथ्यात्वरूप हो गया है। वह पलटे तो सम्यक्दर्शन हो। ज्ञानी कहते हैं कि सत् दूर नहीं है, परन्तु मोह के कारण आत्मा क्या है? कैसा है, इसका पता नहीं लगता। वस्तु यह है, ऐसा पहचान नहीं होता, इसका कारण मोह है। यह जीव स्वयं अपनी ही कल्पना से बंधा हुआ है। सत् की खोज करनी हो तो सत्पुरुष की पहचान करें। आत्मा को न मानने से, आत्मा का नाश नहीं होता। वह तो है ही है। सत् तो सत् ही है। तीनों काल में रहने वाला पदार्थ है। वह किसी भी काल में नाश नहीं होता। सत् है, वह सत् ही है, सरल है, सुगम है। परन्तु दूर लगने का कारण अपना मोह है। जीव का मोह टले तो उसे अपने स्वरूप की प्रतीति हो, दूसरी वस्तु तो कोई दे तभी मिलती है, परन्तु यह तो अपने पास ही है। सत् की पहचान करनी हो तो चारों गति में हो सकती है। नारकी को भी सम्यकदर्शन होता है। देवलोक, तिर्यंच और मनुष्य गति में भी हो सकता है। भ्रान्ति सत् से विपरीत है, हो आत्मा और माने देह, वह भ्रान्ति है, विपरीतता है, मिथ्यात्व है। सत् है तो सही, पर आवरण में है भ्रान्तिरूप आवरण है। वह दिखें ऐसा नहीं है, कल्पना है। जो वस्तु सच्ची हो, वह सत् कहलाती है। एक सत् है और एक