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________________ सम्यक् चारित्र की पूर्णता निर्विकारी पर्याय अथवा विकारी पर्याय भी स्वतंत्र पर्यायसत्ता है। उसे ज्यों का त्यों जानना चाहिये । जीव, विकार भी पर्याय में स्वतंत्र रूप से करता है, उसमें भी अपनी पर्याय का दोष कारण है। प्रत्येक द्रव्य-गुण- पर्याय की सत्ता स्वतंत्र है, तब फिर कर्म की सत्ता आत्मा की सत्ता में क्या कर सकती है? कर्म और आत्मा की सत्ता में तो प्रदेश भेद स्पष्ट है। दो वस्तुओं में सर्वथा पृथक्त्व भेद है। } यहाँ यह बताया गया है कि एक गुण के साथ दूसरे गुण का पृथक्त्व भेद न होने पर भी उनमें अन्यत्व भेद है । इसलिये एक गुण की सत्ता में दूसरे गुण की सत्ता नहीं है। 87 प्रदेश भेद न होने से अभेद है और गुणगुणी की अपेक्षा से भेद है। कोई भी दो वस्तुयें लीजिये, उन दोनों में प्रदेशत्वभेद हैं; किन्तु एक वस्तु में जो अनन्त गुण हैं उन गुणों में एक दूसरे के साथ अन्यत्व भेद है, किन्तु पृथक्त्व भेद नहीं है। इन दो प्रकार के भेदों के स्वरूप को समझ लेने पर अनंत परद्रव्यों का अहंकार दूर हो जाता है और पराश्रयबुद्धि दूर होकर स्वभाव की दृढ़ता हो जाती है। सच्ची श्रद्धा होने पर समस्त गुणों को स्वतंत्र मान लिया जाता है। पश्चात् समस्त गुण शुद्ध हैं, ऐसी प्रतीति पूर्वक जो विकार होता है उसका भी मात्र ज्ञाता ही रहता है। अर्थात् उस जीव को विकार और भव के नाश की प्रतीति हो गई है। समझ का यही अपूर्व लाभ है। प्रवचनसार शास्त्र के ज्ञेय अधिकार में द्रव्य-गुण- पर्याय का वर्णन है। प्रत्येक गुण- पर्याय ज्ञेय हैं, अर्थात् अपने समस्त गुण - पर्याय का और अभेद स्वद्रव्य का ज्ञाता हो गया, यही सम्यग्दर्शन धर्म है। "" १. सम्यग्दर्शन पृष्ठ १५६ से १५८
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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