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________________ सम्यक्त्व की पूर्णता मन्दता आते-आते मिथ्यात्व कर्म शिथिल होता है, उसकी स्थिति कम होती जाती है, अनुभाग भी हीन-हीन होता जाता है और उसके उपशम होने के काल में शुद्धात्मा के ध्यान से श्रद्धा गुण की पर्याय स्वयमेव सम्यक्त्वरूप परिणमन करती है। उसीसमय ज्ञान गुण के परिणमन में अपने-आप सम्यक्पना आ जाता है एवं जो चारित्र गुण पहले मिथ्या- चारित्ररूप परिणमन कर रहा था, वह सम्यक्चारित्ररूप परिणमित हो जाता है। श्रद्धादि तीनों गुणों के सम्यक् परिणमन में सर्वप्रथम श्रद्धा गुण के परिणमन में पूर्णता होती है। चारित्रगुण की पूर्णता (भाव चारित्र) बारहवें गुणस्थान में होती है। तदनन्तर ज्ञानगुण के परिणमन में (केवलज्ञानरूप) पूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है। अन्त में सिद्धावस्था में द्रव्यचारित्र की पूर्णता होती है। वास्तविकरूप से देखा जाय तो श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुण का सम्यक्परिणमनरूप कार्य एकसाथ ही प्रगट होता है। ऐसा नहीं है कि श्रद्धा मुण का परिणमन तो सम्यक्रूप हो गया और ज्ञान एवं चारित्र गुण के परिणमन में सम्यक्पना आया ही नहीं अथवा कुछ काल व्यतीत होने पर ज्ञान और चारित्र गुण के परिणमन में सम्यक्पना आया; अपितु श्रद्धादि तीनों गुणों के परिणमन में सम्यक्पना एकसाथ अर्थात् एक समय में ही आता है। __इतना ही नहीं जब-जब श्रद्धा में सम्यक्पना आता है, तब-तब श्रद्धा का सम्यक्पना पूर्ण ही होता है, अधूरा नहीं होता। श्रद्धा के सम्यक् परिणमन को कर्म के निमित्त से औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिक नाम प्राप्त हो तो भी सम्यक्पने में कुछ भी अन्तर नहीं होता है, वह सम्यक् परिणमन तो पूर्णरूप ही होता है। ___श्रद्धा गुण के सम्यक् परिणमन में क्रम से विकास होते हुए वह सम्यक्त्व धीरे-धीरे पूर्ण हो- ऐसा स्वरूप या व्यवस्था ही नहीं है। जब
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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