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सम्यग्दर्शन की परिभाषाएँ ३१. अपने-अपने स्वभाव में स्थित तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन
कहते हैं। जीव-अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा व मोक्ष ये
सात तत्त्व हैं। (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय-१, सूत्र-२,३,४) ३२. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षणवाला सराग सम्यग्दर्शन है।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय-१, सूत्र-२, १२,७) ३३. (दर्शनमोहनीय की) सातों प्रकृतियों का आत्यन्तिक क्षय हो
जानेपर जो आत्म विशुद्धिमात्र प्रकट होती है, वह वीतराग - सम्यक्त्व है। (तत्वार्थवार्तिक अध्याय-१, सूत्र-२,३१,२२) ३४. तहाँ प्रशस्तराग सहित जीवों का सम्यक्त्व सराग सम्यक्त्व है। ३५. प्रशस्त व अप्रशस्त दोनों प्रकार के राग से रहित क्षीणमोह . वीतरागियों का सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है।
(भगवती आराधना, वि-५१,१७५,१८,२१) ३६. क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है। ३७. औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग है। ३८. प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा इन प्रगट लक्षणोंवाला
सराग सम्यक्त्व जानना चाहिए। ३९. उपेक्षा अर्थात् वीतरागता लक्षणवाला वीतराग सम्यक्त्व है।
. (अमितगति श्रावकाचार अधिकार-२, श्लोक-६५-६६) ४०. सच्चे-देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक-४, पृष्ठ-३) ४१. सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु इन तीनों का आठ अंग सहित,
तीन मूढ़ता और आठ मदरहित श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
(रत्नकरण्डसावकाचार श्लोक-४) ४२. सम्यक्त्व के आठ अंगों का समूह ही सम्यग्दर्शन है।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृष्ठ-३६)