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________________ 103 सम्यक्चारित्र की पूर्णता उनमें से अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान, अप्रत्याख्याना-वरण क्रोधमान, ये आठ और अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये. बारह प्रकृति तो द्वेषरूप परिणमन में निमित्त हैं तथा शेष तेरह प्रकृतियाँ रागरूप परिणमन में निमित्त हैं। इसप्रकार अनादिकाल से यह जीव इन्हीं २५ कषायों के वशीभूत होकर नित्य अनेक दुष्कर्म करता हुआ संसार सागर में भ्रमण कर रहा है। अतः आठों कर्मों में इस मोहनीय कर्म को सर्वप्रथम जीतना चाहिये। ___ जब तक मोहनीयकर्म का पराजय न हो, तब तक शेष कर्मों का पराजय हो ही नहीं सकता। इसलिये सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करके दर्शनमोह का, सम्यग्ज्ञान से ज्ञानावरण का और सम्यक्चारित्र से (अर्थात् वीतरागता से) चारित्रमोहनीय का नाश करके सम्यक्रत्नत्रय प्राप्त करना चाहिये। ___ जब कोई भी जीव इसी क्रम से कर्मों का नाश करके आत्मा के गुणों का विकास करेगा, तभी वह अपने ध्येय को प्राप्त कर सकेगा।" इसी विषय को समझने के लिए आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचन का अंश हम आगे दे रहे हैं - ___ “जिसप्रकार राजमार्ग की सीधी सड़क के बीच में काँटे-कंकड़ नहीं होते; उसीप्रकार मोक्ष का यह सीधा व स्पष्ट राजमार्ग, उसके बीच में राग की रुचिरूपी काँटे-कंकड़ नहीं हो सकते। सन्तों ने शुद्धपरिणतिरूप राजमार्ग से मोक्ष को साधा है और वही मार्ग जगत को दर्शाया है। ८१. प्रश्न - यह राजमार्ग है तो दूसरा कोई ऊबड़-खाबड़ मार्ग भी तो होगा न? उत्तर - ऊबड़-खाबड़ मार्ग भी राजमार्ग से विरुद्ध नहीं होता। १. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय पृष्ठ १९१-१९३
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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