________________
भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग अन्य गुणों अर्थात् ज्ञान एवं चारित्र के परिणमन अक्षुण्ण नहीं रहते । चारित्र का जितने अंश में श्रद्धा के साथ बने रहने का अबिनाभावी संबंध है, उतना चारित्र साथ रह जाता है। जैसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि मुनिराज के सर्वार्थसिद्धि पहुँच जाने पर, सम्यक्त तो अक्षुण्ण बना रहता है, लेकिन स्वरूपाचरण के अतिरिक्त चारित्र साथ नहीं जाता, इसी प्रकार ११ अंग ९ पूर्व का पाठी द्रव्यलिंगी साधु का ज्ञान, पर्याय के साथ ही व्यय को प्राप्त हो जाता है ? श्रद्धा गुण के अक्षुण्ण परिणमन की इस प्रकार की योग्यता होने से आत्मा में इसके संस्कार भी अक्षुण्ण बने रहते हैं। इसी प्रकार सम्यक्त्व उत्पन्न होने के पूर्व भी, जो पुरुषार्थ ज्ञायक में अपनत्व करने का किया गया हो
और उससे मिथ्यात्व-अनन्तानुबंधी की क्षीणता हुई हो तो ऐसे श्रद्धा के संस्कार भी आगामी भव में आत्मा के साथ जाते हैं, लेकिन ज्ञान के नहीं। इस प्रकार श्रद्धा के कार्य की श्रृंखला चलती है ज्ञान एवं चारित्र की नहीं अर्थात् श्रद्धा सम्यक् हो तो, श्रृंखला के कारण पर्यायें प्रति क्षण बदलते हुए भी, प्रत्येक पर्याय में सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न होती रहती है। इसी प्रकार अज्ञानी-मिथ्यात्वी आत्मा की, पर को स्व मानने की विपरीत मान्यता की श्रृंखला अनादि से चलती आ रही है; फलस्वरूप प्रत्येक पर्याय का उत्पाद ही, पर को स्व मानने रूप होता है। इस प्रकार ज्ञान का भी पर को स्व जानने रूप तथा चारित्र का भी पर आचरण (पराचरण) रूप परिणमन श्रृंखलाबद्ध होता रहता है। यही है अनादि से चला आ रहा, पर को स्व मानने रूप विपरीत मान्यता के उत्पाद का इतिहास।
इस प्रकार पर को जानना दोष का उत्पादक नहीं है, वरन् पर में अपनेपने की मान्यता ही संसार का मूल कारण है।