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भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग
सिद्धस्वभावी ज्ञायक की स्थापना
आत्मा के विकार का अभाव कर, निर्विकारी स्वरूप प्राप्त करने का आधार, उग्र रुचि के पृष्ठबलपूर्वक, ज्ञायक ध्रुव तत्त्व का आश्रय है अर्थात् अपने ध्रुव स्वरूप में अपनत्वपूर्वक की श्रद्धा है। अनादि से अपरिचित-अव्यक्त होने से आत्मा का ध्रुवस्वरूप सूक्ष्म है; और आत्मद्रव्य की वर्तमान पर्याय है, वह परिचित-व्यक्त होने से स्थूल है। अत: अज्ञानी के ज्ञान में पर्याय का वेदन होने से पर्याय तो ज्ञान आ जाती है, लेकिन ध्रुव ज्ञात नहीं होता। उसका तो स्वरूप समझकर, निःशंक निर्णय होने पर, श्रद्धा-प्रतीति-विश्वास ही किया जाता है; ज्ञेय नहीं बन सकता । ज्ञानी को भी निर्विकल्प दशा में, मात्र संवेदन ही होता है, आनन्दानुभूति होती है; ज्ञायक प्रत्यक्ष नहीं होता। इसलिये ध्रुव की रुचि के जोर से प्रगट पर्याय को गौण-उपेक्षा कर, त्रिकाल एकरूप (सिद्ध भगवान् की आत्मा के समान) ध्रुवस्वरूप को रुचि पूर्वक समझकर पहिचानकर, नि:शंक निर्णय होकर, श्रद्धा होती है कि मैं तो ध्रुव-त्रिकाल रहनेवाला सिद्ध भगवान् के समान हूँ। पर्याय एक समयवर्ती है; मैं तो त्रिकाल रहने वाला अनुभव में आ रहा हूँ। अत: वह ही मेरा स्वरूप है, वही ध्रुव है।
उक्त प्रकार का निर्णय एवं श्रद्धा करने के लिये, भगवान् सिद्ध की प्रगट प्रर्याय का स्वरूप समझना अनिवार्य है। अनन्तगुणों की अपार सामर्थ्य सिद्ध दशा होने पर प्रगट हो जाती है। ज्ञान पर्याय की सामर्थ्य अनन्तता को प्राप्त होकर सर्वज्ञता को प्राप्त हो जाती है। वीतरागतापूर्वक सर्वज्ञता प्रगट होकर जानने को कुछ रहा नहीं, अत: जानने की आकुलता आदि समस्त प्रकार की आकुलताओं का