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. भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग
जानने से सर्वज्ञ हो जाता है; उपर्युक्त विवेचन से ऐसी श्रद्धा हो जाती है कि जानने की प्रक्रिया तो सबकी समान है; अतः सिद्ध भगवान अपने ज्ञायक में अपनेपन पूर्वक लीन रहते हुए, स्व-पर को जानते हैं, ज्ञानी ज्ञायक में अपनेपन पूर्वक,लेकिन लीनता रहित स्व-पर को जानते हैं और अज्ञानी पर में अपनेपन पूर्वक पर में लीन रहते हुए मात्र पर ज्ञेयाकार परिणत ज्ञान पर्याय को जानता है। तात्पर्य यह है कि मैं भी ज्ञायक में अपनेपन पूर्वक स्व-पर को जानूं तो मैं भी ज्ञानी हो सकता हूँ। .. आत्मा में ज्ञान के अतिरिक्त अनन्त गुण हैं, इससे उन गुणों की सामों का अनुमान भी हो जाता है। इस प्रकार की अनन्त शक्तियों का धारक आत्मा है, वही मृत्युकाल में इस शरीर को छोड़कर अन्यत्र जाता है। अविनाशी होने से वह अनादि अनन्त विद्यमान रहता है, शरीर के साथ उसका नाश नहीं होता। अतः जो निकल जाने वाला ज्ञायक है वह ही मैं हूँ; यह शरीर मैं नहीं हूँ, सहज ही, ऐसी श्रद्धा जाग्रत हो जाती है । इसप्रकार आत्मा का स्वरूप पहिचानकर, उसके आश्रय से जो शरीर के प्रति भिन्नता का ज्ञान करना है, वह अज्ञानी के लिये भेदज्ञान का प्रथम सोपान है। रुचि के पृष्ठबलपूर्वक अपनाये गये उपर्युक्त प्रकार के भेदज्ञान द्वारा, असद्भूत उपचारनय के विषय ऐसे, शरीर एवं शरीर से संबंध रखने वाले जो स्त्री-पुत्रादि चेतन एवं मकान, जायदाद, रुपया-पैसा आदि अचेतन परिकर हैं उनसे अपनापन टूटकर, अपने आत्मा में अपनापन आ जाता है। आत्मा में मेरापन आ जाने पर, जिसको अपना मान रखा था ऐसे शरीरादि में परत्वबुद्धि उत्पन्न होकर, उस ओर से परिणति सिमट जाने से आत्मसन्मुखता प्रारम्भ हो जाती है।
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