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(17) किं केणवि आणापसरुहउ। किं अणतियहिं पुणु मणु खुहिउ।।
किं सिद्धजंतुपुणु वीसरिउ। किं रोयदुक्खु पुणु वि फुरिउ।।
तं कारणु वल्लह महु भणहु ।.....................सिरिवाल० 5/1/4-7 जब श्रीपाल विदेश यात्रा के समय अपनी माँ के समक्ष उससे विदा लेने हेतु पहुँचता है तब माँ के हृदय की ममता फूट पड़ती है और उसके हृदय-तल में छिपा हुआ स्नेह-जल चूने लगता है। कवि रइधू ने इस दृश्य का भी सुन्दर चित्रण किया है। माँ उपदेश देती हुई कहती है - तुहु पेच्छिवि णयण' संत्तुटुइँ। तुव पेच्छिवि मणि दुक्खइँ णटुइँ।
तुव दंसण-विणु महु सुअ वासरु । कहव ण खुट्टइ णं संवच्छरु।। पुणु वि जाहि जिणणाहु तिक्कालेण जि दुरियहरो। चउविहसंघहु दाणु दिजहि णिरुवहु सुक्खयरु।।
सिरिवाल० 5/6/7-15 छठवीं सन्धि में कवि ने धवल सेठ की काम-विह्वल अवस्था का सुन्दर चित्रण किया है। अलंकार-शास्त्र में कामियों की 10 अवस्थाएँ वर्णित हैं। प्रथमावस्था में चिन्ता उत्पन्न होती है। द्वितीय अवस्था में प्रिय के संगम की आकांक्षा जागृत होती है। तृतीयावस्था में प्रिय के मिलने के कारण दीर्घ निश्वासें चलती हैं। चौथी अवस्था में काम-ज्वर उत्पन्न होता है। पाँचवीं अवस्था में शारीरिक अंग जलने लगते हैं। छठवीं अवस्था में भोजन भी अच्छा नहीं लगता है। सातवीं अवस्था में मूर्छा उत्पन्न होती है। आठवीं अवस्था में उन्माद होता है। नवी अवस्था में प्राणों में भी सन्देह उत्पन्न हो जाता है और दसवीं अवस्था में कामी जीव प्राणों से वंचित हो जाता है। ____ महाकवि रइधू ने इन दसों अवस्थाओं में से धवल सेठ की निम्न अवस्थाओं का सुन्दर चित्रण किया है
उण्हसासु वयणाउ पवट्टइ। किं इहु रोउ केणउ हट्टइ। मरणावच्छ एह णिरु वट्टइ। जिम सर सुकइ मीणु पलोट्टई। जलु तंबोलु ण गिन्हहि किंपि वि। गीउविणोउ ण रुच्चइ तं जिवि।
सिरिवाल० 6/17/3-5
1. ...अगडदत्तकहागाथा संख्या 42-45