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पैदा किया जा सकता है। हाइड्रोजन व ऑक्सीजन गैस के संयोग से निम्न प्रकार यह द्रव्य बनाया जा सकता है -
2H, +0, = 2H,0 पानी का अणु द्विध्रुवात्मक अणु होता है। (चित्र 1,2) यह परिकल्पना, जो 2-3 वर्ष पूर्व की गई थी, कि ये अणु हाइड्रोजन बोन्ड की ऊर्जा से एक विशिष्ट 'षड्भुजी' या 'पंचभुजी' आकार की बनावट बनाते हैं (चित्र 3) इसको H,O, के फार्मूले से दर्शाया जा सकता है। यह संरचना, मार्च 2004 के 'नया-ज्ञानोदय में प्रकाशित पानी के एक षट्कोणीय आकार के रवे के फोटो से सिद्ध भी होती है। (चित्र 4b)
साधारणतया हाइड्रोजन बोन्ड कमजोर होता है। लेकिन पानी में घुली हुई हवा के आयन/मूलक की मौजूदगी के कारण, जब पानी के षड्भुजी या पंचभुजी कण जुड़कर त्रिआयामी ढाँचा बनाते हैं, तो ये कमरे के तापक्रम पर भी स्थायी रहते हैं। यह इकाई रूप आकार अपनी केन्द्रित ऊर्जा से, सहजातिक अणुओं को आकर्षित करके 18 इकाइयों का एक जालीनुमा, बंद ट्यूब जैसा कोषाणु बना सकता है। (चित्र 4) ऐसी नेनोट्यूब के अणुओं का जो रासायनिक एवं em बोन्ड होता है, वह बहुत शक्तिशाली होता है। 'पाइपनुमा' आकार इस ढाँचे को बहुत सख्त बना देता है। अंदर से खोखला होने के कारण, पानी में घुली हुई स्वतंत्र ऑक्सीजन के अणु या मूलक, इस पाइपनुमा मधुमक्खी के छत्ते के आकार के ढाँचे में प्रवेश करते हैं तथा बाहर निकलते हैं। इस जालीरूप ट्यूब की लंबाई 0.1 ग्यू के आसपास होती है तथा आकृति एक सीधी ट्यूब या मुड़ी हुई ट्यूब या फिर शंकु, मंडलाकार या गोलाकर ट्यूब के रूप में हो सकती है। (चित्र 5) इसकी सतही ऊर्जा अल्पतम होती है। पानी को उबालने पर यह ढाँचा टूट जाता है।
जैन विज्ञान के अनुसार जीवित यानि सचित्त पानी में 8 प्रकार के स्पर्श पाये जाते हैं - गर्म-ठंडा, खुरदरा-कोमल, गुरु-लघु और स्निग्ध-रुक्ष। पहले दो स्पर्श पानी के उपर्युक्त ढाँचे (पाइपनुमा मधुमक्खी का छत्ता) के प्रकम्पनों के गुण से संबंधित है। जबकि स्निग्ध एवं रुक्ष स्पर्श इस ढाँचे के विद्युतीय गुण से संबंधित है। आपस में जुड़े षड्भुजी व पंचभुजी रवों के ऋण और धन आवेश इस ढाँचे को विशेष प्रकार का स्पर्शन प्रदान करते हैं। यह कोषाणु या ढाँचा अपनी विद्युत-ऊर्जा से लगातार समाविष्ट करते हैं। फिर सोखी हुई हवा के अणु या मूलक (रेडिकल्स), जो इस ट्यूब में प्रवेश कर दूसरी तरफ से बाहर निकलते हैं - अपनी गति से एक अलग विद्युत-ऊर्जा पैदा करते रहते हैं। कोषाणु की ऊर्जा इन मूलकों को एक सक्रिय-संतुलन में रखती है। अपने में संचित ऊर्जा को, मांग होने पर, यह कोषाणु उपलब्ध कराने में समर्थ होता है। (चित्र 6)
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