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Gandhi's Teachers : Rajchandra Ravjibhai Mehta
हुए जीव के अहंभाव-ममत्वभावको दूर करने के लिये ज्ञानी पुरुषोंने इन छह पदों की देशना प्रकाशित की है। एक केवल अपना ही स्वरूप उस स्वप्नदशा से रहित है, यदि जीव ऐसा विचार करे तो वह सहजमात्र में जागृत होकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त हो; सम्यग्दर्शन को प्राप्त होकर निज स्वभावरूप मोक्ष को प्राप्त करे। उसे किसी विनाशी, अशुद्ध और अन्य भाव में हर्ष, शोक और संयोग उत्पन्न न हो, उस विचार से निज स्वरूप में ही निरंतर शुद्धता, सम्पूर्णता, अविनाशीपना, अत्यंत आनन्दपना उसके अनुभव में आता है। समस्त विभाव पर्यायों में केवल अपने ही अध्याय से एकता हुई है, उससे अपनी सर्वथा भिन्नता ही है, यह उसे स्पष्ट - प्रत्यक्ष - अत्यंत प्रत्यक्ष - अपरोक्ष अनुभव होता है। विनाशी अथवा अन्य पदार्थ के संयोग में उसे इष्ट-अनिष्ट भाव प्राप्त नहीं होता। जन्म, जरा, मरण, रोग, आदि की बाधारहित, सम्पूर्ण माहात्मय के स्थान ऐसे निज-स्वरूप को जानकर - अनुभव कर के - वह कृतार्थ होता है। जिन जिन पुरुषों को इन छह पदों के प्रमाणभूत ऐसे परम पुरुष के वचन से आत्मा का निश्चय हुआ है, उन सब पुरुषोंने सर्व स्वरूप को पा लिया है। वे आधि, व्याधि, उपाधि और सर्वसंग से रहित हो गये हैं, होते हैं, और भविष्य में भी वैसे ही होंगे। The six spiritual steps, said by the enlightened people to be the mainstay of right perception, have been briefly stated here. To a soul which is close to liberation, these spiritual steps come into awareness upon ordinary thought. (These spiritual steps) are definitely worth knowing and their detailed discretion should take place in the soul. These spiritual steps are beyond any doubt, so has been observed by the supreme personage. Their reasoned knowledge has been provided to make the soul realize own original form. The enlightened personages have extended the details of these six spiritual steps in order for the soul to rid feelings of egotism and attachment caused by timeless illusionary conditions. If a living being would try to understand that only soul is free of illusionary conditions, then soul effortlessly awakens and attains right perception. Having attained right perception, soul attains liberation, its true nature. On the thought that joy, sorrow, and attachment are not born of impure, impermanent, and alien feelings in this state, soul constantly experiences eternal purity,
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