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________________ स्वाध्याय स्वाध्याय ज्ञान की कुंजी है। वह जीवन में चारों ओर से घटित होने वाली घटनाओं के प्रति व्यक्ति को सजग रहने की प्रेरणा देता है। स्वाध्याय पापकर्मों का नाश करने वाला होने के कारण आध्यात्मिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण होता ही है साथ ही लौकिक जीवन में भी ज्ञानार्जन का हेतु होता है। सवृत्तिआख्यानकमणिकोश के १४वें स्वाध्यायफलवर्णनाधिकार में यव साधु के कथानक द्वारा जीवन में स्वाध्याय की उपयोगिता को प्रतिपादित किया गया है। सीखा हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता। कभी-कभी तो अनजाने में सीखा गया ज्ञान भी जीवन रक्षक सिद्ध होता है (१४.४४.गा.४४)। यव साधु के कथानक में बताया है कि जाने-अनजाने में सीखी गई गाथाओं के कारण यव राजा जीवन में अनेक कष्टों से बच जाता है। इस कथानक में स्वाध्याय को जीवन रक्षक सामग्री के रूप में प्रस्तुत कर ज्ञानार्जन कर प्रेरणा दी गई है। ज्ञानार्जन धर्मतत्त्व के श्रवण से भी सम्भव है। २२वें जिनागमश्रवणफलाधिकार में निरूपित चिलातीपुत्र तथा रौहिणेयक चोर के आख्यानकों द्वारा रचनाकार ने इस महत्त्वपूर्ण जीवन संदेश को समझाया है कि धर्मतत्त्व का श्रवण मात्र चोरी व तस्कर जैसा नीच कृत्य करने वाले प्राणियों के जीवन में परिवर्तन लाकर उसे सम्यक्जीवण की ओर अग्रसरित कर सकता है। अतः जब भी अवसर मिले धर्म-तत्त्व का श्रवण अवश्य करना चाहिए। विनय ' विनय से ही कार्य की सिद्धि होती है। विनय सम्पादन से देवता भी प्रसन्न होते हैं ' (मू.गा.२२)। संवृत्तिआख्यानकमणिकोश के १७वें विनयवर्णनाधिकार में चित्रप्रिय यक्ष एवं वनवासी यक्ष के कथानकों द्वारा विनय की महत्ता को स्थापित किया गया है। चित्रप्रिय यक्ष के कथानक में बताया गया है कि साकेत नगरी का यक्ष प्रतिवर्ष चित्रित किया जाता था। चित्र पूरा होने के पश्चात् यक्ष उस चित्रकार को मार डालता था। किन्तु, कौशाम्बी के एक चित्रकार ने विनय गुण के प्रदर्शन से न केवल यक्ष के हाथों अपना जीवन बचाया अपितु उस यक्ष से यह वरदान भी प्राप्त कर लिया कि 'जिस किसी व्यक्ति के एक अंग को भी वह देख लेगा उसका प्रतिरूप चित्र (प्रोट्रेट) बनाने में वह सक्षम होगा '। गुरु के वचन एवं मनोभावों को यथार्थ रूप में ग्रहण करना और उसके अनुकूल आचरण करना भी विनय गुण के अन्तर्गत आता है । आख्यानकमणिकोश के ३३३ एकाकीविहारदोषवर्णनाधिकार में कुलबालमुनि के कथानक द्वारा भी यही संदेश दिया गया है कि गुरु के कथन के पीछे छिपी मानसिकता व उनके अनुभव की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। गुरु की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करने वाला व्यक्ति अक्सर अपने पथ से विचलित हो जाता है। गुरु की आज्ञा की अवमानना कर कुलबालमुनि एकान्त में घोर तपस्या करने चले जाते हैं, किन्तु स्त्री-परीषह से पराजित होकर घोर पतन के मार्ग पर चल पड़ते हैं। आज शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती अराजकता के साथ-साथ छात्रों में अनुशासनहीनता, उत्कृङ्खलता और मर्यादाहीनता का जो व्यवहार देखने को मिल रहा है उससे मुक्ति पाने हेतु ये कथानक मूल्यवान प्रेरणा देते हैं। -- 283 - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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