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विनय
__ उपदेशमाला में विनय को जिन-शासन का मूल कहा गया है। संयम तथा तप से विनीत बनना चाहिये। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप ? इसी तरह धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम लक्ष्य है। विनय के द्वारा ही मनुष्य बड़ी जल्दी शास्त्रज्ञान कीर्ति सम्पादन करता है। अन्त में निःश्रेयस् भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है। सहिष्णुता
दशवैकालिक सूत्र में सहिष्णुता के सम्बन्ध में कहा गया है कि क्षुधा, प्यास व दुःशैय्या, विषमभूमि-युत्त वासस्थान, सर्दी, गर्मी, अरति, भय-इन सब कष्टो को मुमुक्षु अव्यथित चित्त से सहन करे। समभाव से सहन किये गये दैहिक कष्ट महाफल के हेतु होते हैं। यथा -
खुहं पिवासं दुस्सेजं, सीउण्हं, अरइ मयं ।
अहियासे अव्वहिओ,देह-दुक्खं महाफलं ।। द्वादसानुप्रेक्षा में सहिष्णुता के सम्बन्ध में कहा गया है कि व्रती पुरुष उपसर्ग तथा तीव्र परिषह को ऋणमोचन-कर्ज चुकाने की तरह मानता है। वह जानता है कि ये तो मेरे द्वारा पूर्वजन्म में संचित किये गये कर्मों के ही फल है।
रिणमोयणं व मण्णइ, जो उवसग्गं परीसहं तिव्वं । पावफलं में एदं, मया वि जं संचिदं पुव्वं ॥
सदाचार
उत्तराध्ययन सूत्र में सदाचार के बारे में कहा गया है कि सदा शान्त रहे, वाचाल न हो, ज्ञानी पुरुषों के समीप रहकर अर्थयुक्त आत्मार्थ-साधक पदों को सीखे। निरर्थक बातों को छोड़े। विवेकी पुरुष अनुशासन से कुपित न हो, शान्ति-क्षमाशीलता धारण करें तथा क्षुद्र जनों की संगति न करे, उनके साथ हास्य और क्रीड़ा का वर्जन करें। जो व्यवहार धर्म से अनुमोदित है और ज्ञानी पुरुषों ने जिसका सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करने वाला पुरुष कभी भी गर्दा-निन्दा को प्राप्त नहीं होता। यथा -
धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहायरियं सया ।
तमायरतो ववहारं, गहरं नाभिगच्छइ ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र१/४२ इन वैश्विक मूल्यों से पता चलता है कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के अभ्युत्थान के लिए ये सभी मूल्य आवश्यक हैं। सभी मूल्यों का परस्पर एकात्मक कल्याण-मार्ग से आबद्ध रहें। उसमें सौहार्द्र, आत्मोत्थान, स्थायी शांति, सुख और समृद्धि के पवित्र साधनों का उपयोग होता रहे। इस प्रकार के विचार प्राचीन आगम साहित्य में
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