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राजकुमारी कुन्दव्वे
तंजौर के ११वीं सदी के पूर्वार्द्ध के एक अभिलेख के अनुसार राजराज चोल की पुत्री कुंदव्ये (१०वीं सदी) बड़ी ही धर्मात्मा और जिनभक्त थी। वह बेंगी के चालुक्य-नरेश-विमलादि की महारानी थी। इसने तिरुमलै के पर्वत-शिखर पर एक 'कुन्दब्बे-जिनालय' का निर्माण करवाया था और उसकी व्यवस्था हेतु कई ग्रामों को दान में दिए थे। यह भद्रपरिणामी महिला अपने अन्तिम समय तक भ. महावीर के सर्वोदयी जैन आदर्शों की संवाहिका बनी रही और जीवन पर्यन्त सुपात्रों को उदारतापूर्वक दान देती रहीं। माललदेवी
कुन्तल-देश के वनवासी-क्षेत्र के कदम्ब-शासक कीर्तिदेव की अग्रमहिषी मालल देवी जिनेन्द्र भक्त तथा गरीबों के प्रति अत्यन्त दयालु थी। एक शिलालेख से विदित होता है कि उसने सन् १०७७ ई. में कुप्यटूर में एक कलात्मक भव्य पार्श्वनाथ-चैत्यालय का निर्माण करवाया था, जिसकी प्रतिष्ठा पद्मन्दि सिद्धान्तदेव के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुई थी। इस जिनालय के लिये मालल देवी ने राज्य से एक सुन्दर कर-मुक्त भूखण्ड भी प्राप्त किया था। चतुर प्रशासिका जाक्कियव्वे
जाक्कियव्ये (१०वीं सदी) की यह विशेषता है कि वह विदुषी श्राविका, सद्गृहिणी तथा जिनभक्त होने के साथ-साथ एक कुशल प्रशासिका भी थी। ११वीं सदी के आसपास के उत्कीर्ण एक शिलालेख (सं ११४०) में उसकी यशोगाथा का वर्णन मिलता है। उसके पति का नाम नागार्जुन था। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय (कन्नरदेव) उस परिवार से इतने प्रसन्न थे कि जक्कियव्वे के पति नागार्जुन का अकस्मात् स्वर्गावास हो जाने पर, उसने उसे नागरखण्ड नामक एक जटिल प्रक्षेत्र की प्रशासिका के रुप में नियुक्त कर दिया था। जक्कियव्वे दूरदृष्टि-सम्पन्न एवं कष्ट-सहिष्णु किन्तु विदुषी महिला थी। उसके बहुआयामी व्यक्तित्व की सूचना इसी से मिलती है वह एक ओर तो राज्य-प्रशासन का कुशलतापूर्वक संचालन करती थी और दूसरी ओर परिवार एवं समाज का संचालन भी। उसने जिनेन्द्रभक्ति वश एक विशाल जैन प्रतिमा की स्थापना कर जिनधर्म की पताका फहराई थी।
इस प्रकार प्रस्तुत निबन्ध में मैंने कर्नाटक की कुछ जैन जागृत यशस्विनी श्राविकाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया। जैन संस्कृति एवं इतिहास के क्षेत्र में उनके बहुआयामी संरचनात्मक योगदानों के कारण उन्होंने जैन समाज को जो गौरव प्रदान किया, वह पिछले लगभग १३०० बर्षों के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है, जिसे किभी भी विस्तृत नहीं किया जा सकेगा। आवश्यकता इस बात की है यदि कोई स्वाध्यायशीला विदुषी प्राध्यापिका इस धैर्यसाध्य क्षेत्र में विश्वविद्यालय-स्तर का विस्तृत शोध-कार्य करे, तो मध्यकालीन जैन महिलाओं के अनेक प्रच्छन्न ऐतिहासिक कार्यों को तो प्रकाश-दान मिलेगा ही, भावी पीढ़ी को भी अपने जीवन को सार्थक बनाने हेतु नह-नई प्रेरणाएँ मिल सकेंगी।
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