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________________ जिनेन्द्र-भक्त भी थी। उसे अपने पति की 'कार्यनीतिवधू' और 'रणेजयवधू' कहा गया है। एक शिलालेख के अनुसार उसने श्रवणबेलगोल में 'एरडुकट्टे बसदि' का निर्माण कराया था। वह अपनी सासु-माता पोचव्वे की बड़ी भक्त थी। अत: उसकी स्मृति में भी उसने ' कत्तले - बसदि' एवं शासन - बसदि का निर्माण करवाया था। इनके साथ साथ उसने अपने भाई बूच एवं बहिन देमेति की स्मृति में तथा जैनाचार्य मेघचन्द्र की स्मृति में कई शिलालेखों को उत्कीर्णित करवाया था। वह जीवन भर उदारतापूर्वक चतुर्विध दान देती रही। यही कारण है कि सन् ११२१ ई. के एक शिलालेख में उसकी यशोगाथा में एक प्रश्न पूछा है कि- 'क्या अन्य महिलाएँ अपने चातुर्य, सौन्दर्य, जिनभक्ति एवं उदारता में गंगराज की धर्मपत्नी लक्ष्मीयाम्बिके की समानता कर सकती है? कठोर तपस्विनी पाम्बव्वे कडूर-दुर्ग के मुख्य प्रवेश-द्वार के एक स्तम्भ पर १० वीं सदी की एक राजमहिषी पाम्बव्वे का उल्लेख हुआ है, जिसने अपने राज्य-वैभव के सुख-भोगों को असार मानकर अर्यिका - व्रत की दीक्षा धारण कर ली थी और लगातार २० वर्षों तक कठोर तपश्चर्या की थी। एक सुप्रसिद्ध राजकुल में जन्मी, पली तथा बड़ी हुई सुकुमार एवं सुन्दर नारी का इस प्रकार सर्वस्व त्याग और कठोर तपस्या का यह एक अनुकरणीय आदर्श उदाहरण । वह राजा भूत की बड़ी बहित थी । राजकुमारी हरियव्वरसि राजकुमारी हरिव्वरसि अथवा हरियल देवी ( १२वीं सदी) होयसल वंशी सुप्रसिद्ध नरेश विष्णुवर्धन की राजकुमारी थी । हत्तूरु नामक स्थान के एक जिनालय में प्राप्त सन् १९३० के एक शिलालेख से ज्ञात होता है, कि उसने अपने श्रद्धेय गुरु गण्डविमुक्त-सिद्धान्तदेव की प्रेरणा से स्वद्रव्य से हन्तियूर नामक नगर में एक विशाल भव्य कलापूर्ण जिनालय बनवाया था जिसका अग्रकलश मणि-रत्नों से जटित था। उस जिनालय की व्यवस्था के लिये उसने अनेक गाँव कर-मुक्त कराकर उसे दान में दिये थे । उक्त शिलालेख में उक्त राजकुमार की विस्तृत प्रशस्ति में उसकी तुलना सती सीता, वाग्देवी सरस्वती एवं रुक्मिणि आदि से की गई है और साथ ही उसमें उसे पतिपरायणा, चतुर्विधदान देने में तत्पर, विदुषि तथा आर्हत- परमेश्वर के चरण-नख- मयूख से जिसका ललाट एवं पलक-युग्म सदैव सुशोभित होते रहते हैं, ऐसा लिखकर, उसकी प्रशंसा की गई है। चट्टल देवी शान्तर-राजवंश की राजकुमारी चट्टल देवी (११वीं सदी) प्रारम्भ से ही जैन-धर्म-परायणा थी । उसका विवाह पल्लव-नरेश काडुवेट्टी के साथ सम्पन्न हुआ था। उसने शान्तरों की राजधानी पोम्बुच्चपुर में अनेक भव्य - जिनालयों का निर्माण करवाया था। इनके अतिरिक्त भी उसने भक्तों तथा आम जनता की आवश्यकताओं के अनुसार अनेक स्थलों पर जैनमन्दिर, वसदियों, तालाब तथा साधुओं के लिये गुफाएँ बनवाई और आहार, औषधि, शिक्षा तथा आवास-दानों की भी व्यवस्थाएँ की थीं। इस कारण उसे जैन समाज में श्रेष्ठ दानशील नारियों में अग्रिम स्थान प्राप्त है। Jain Education International -261 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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