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________________ २. औदार्यचिन्तामणि औदार्यचिन्तामणि- - प्राकृत भाषा का शब्दानुशासन है। यह ग्रन्थ दो अध्यायों में पूर्ण हुआ है। प्रथम अध्याय में २४५ सूत्र और द्वितीय अध्याय में २१३ सूत्र हैं। इस प्राकृतव्याकरण में स्वर और व्यन्जन परिवर्तन के साथ शब्दरूप एवं अब्जों का कथन आया है । धातुरूप तथा कृदन्तप्रत्नों का अनुशासन इसमें वर्णित नहीं है। इस व्याकरणों के दो ही अध्याय उपलब्ध हैं, शेष अध्याय अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। ये दो अध्याय जैन सिद्धान्त भवन आरा, एवं ब्यावर के ग्रन्थागर में उपलब्ध हैं। श्रुतसागरसूरि ने ग्रन्थरचना द्वारा तो जैनधर्म का प्रकाश किया ही, पर शास्त्रार्थ द्वारा भी उन्होंने जैनधर्म का पर्याप्त प्रकाश किया है। श्रुतसागर अपने समय के बहुत ही प्रसिद्ध मान्य और प्रभावक विद्वान रहे हैं । इन्होंने अपने समय के राजाओं, सामन्तों और प्रभावक व्यक्तियों को भी प्रभावित किया था । श्रुतसागर का व्यक्तित्व बहुमुखी है । भ. नेमिचन्द्र : जीवतत्वप्रदीपिकाटीका जैन साहित्य में कई नेमिचन्द्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। संस्कृत जीवप्रदीपिकाटीका के रचयिता मूलसंघ बलात्कारगण शारदागच्छ कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि आम्नाय के नेमिचन्द्र हैं । ये ज्ञानभूषण भट्टारक के शिष्य थे । प्रभाचन्द्र भट्टारक ने इन्हें आचार्यपद प्रदान किया था । केशववर्णी ने गोम्मटसार की कर्नाटकवृत्ति लिखी है । इस वृत्तिका नाम भी जीवतत्वप्रदीपिका है। केशववर्णी को ही कुछ लोग संस्कृत जीवतत्वप्रदीपिका का रचयिता मानते हैं। पर डॉ ए. एन. उपाध्ये ने केशववर्णी की कन्नड़ टीका बतलायी है और इस टीका के आधार पर नेमिचन्द्र ने संस्कृत में जीवतत्वप्रदीपिका टीका लिखी हैं। नेमिचन्द्र के सालुव मल्लिराय के समकालीन होने से हम संस्कृतजीवतत्वप्रदीपिका की रचना की ईसा की १६ वीं शताब्दी के प्रारम्भ की ठहरा सकते हैं।' १० ११ इस टीका में संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के शताधिक उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं। इन्होंने समन्तभद्राचार्य के आप्तमीमांसा, विद्यानन्द के आप्तपरीक्षा, सोमदेव के यशस्तिलक, नेमिचन्द्र के त्रिलोकसार और आशाधर के अनगारधर्मामृत प्रभृति ग्रन्थों से अपने विषय की पुष्टि के लिए उद्धरण दिये हैं। टीका में यतिवृषभ, भूतवली, समन्तभद्र, भट्टाकलंक, नेमिचन्द्र, माधवचन्द्र, अभयचन्द्र और केशववर्णी आदि ग्रन्थकारों के नामों का भी निर्देश किया है । कवि राजमल्ल - कवि राजमल्ल १७ वीं शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् और कवि थे । व्याकरण, सिद्धान्त, छन्दशास्त्र और स्याद्वादविद्या में पारंगत थे । स्याद्वाद और अध्यात्मशास्त्र के तलस्पर्शी विद्वान थे । कवि राजमल्ल की निम्नकृतियाँ उपलब्ध हैं- जम्बूस्वामीचरित्र, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, समयसारकलशटीका, लाटीसंहिता, छन्दोविद्या और पंचाध्यायी । " १२ Jain Education International -245 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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