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________________ भट्टारक वादिचन्द्र ने अपनी शुभगसुलोचनाचरित में वीरचन्द्र को विद्वत्ता की प्रशंसा की है और कहा है कि कौन-सा मूर्ख उनके शिष्यत्व को स्वीकार कर विद्वान् नहीं बन सकता। वीरचन्द्रं समाश्रित्य के मूर्खा न विंदो मथन्। तं ( श्रये ) त्यक्त सार्वन्न दीप्त्या निर्जितकान्चनम् ॥ वीरचन्द्र समर्थ साहित्य सेवी थे। वे संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी एवं गुजराती के पारंगत विद्वान थे। ब्रम्हजिनदास : धर्मपंचविंसति ब्रम्ह जिनदास द्वरा लिखित प्राकृत कह एक रचना धर्मपंचविंशति जयपुर के गोधा दिग. जैन मंदिर के ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध है । यह लगभग १५वीं सदी की रचना है । पाण्डुलिपि वि. सं.१८२७ में लिखी गयी थी। आदि भाग भव्य कमल मायंडं सिद्धं जिणति हुयाणिंद सद पुजं । णेमि ससि गुरुवीर पणामियतिय सुधिभव महणं ॥ १ ॥ ससामज्झि जीवो हिंडियमिच्छत विसयसंसत्तो । अलहंता जिणधम्मं बहुविहयन्जाय गिएहेई ॥ २ ॥ अन्त भाग जिणधम्मं मोक्खछं अणंण हवेहि हिंसगायरणं । इय जाणि भव्य जीवा जिणअक्खिय णम्मु आयरहि ।। २० ।। णिम्मल दंसणभत्ती वयअणुपेहा य भावणा चरिया। अंते सलेहण करिजई इच्छहि मुत्तिवररमणि ॥२१॥ मेहा कुमइणि चंदं भवदु सायरहं जाणपत्तमिणं । धम्मं विलास सुदहं भणिदं जिणदास वम्हेण ॥ २२ ॥ इति त्रिविधसैद्धान्तिक चक्रव्राचार्य श्री नेमिचन्द्रस्य शिष्य ब्र श्री जिनदास विरचितं धर्मपंचविशंतिका नाम शास्त्रं समाप्तम् । श्री चन्देन प्रतिलिपि कृतं । भ. सुमतिकीर्ति : कर्मकाण्डटीका सुमतिकीर्ति नन्दिसंघ बलात्करगण एवं सरस्वतीगच्छ के भट्टारक वीरचन्द्र के शिष्य थे। इनके पूर्व इस परम्परा में लक्ष्मीभूषण , मल्लिभूषण एवं विद्यानन्दि हो चुके हैं। सुमतिकीर्ति ने प्राकृतपंचसंग्रह की टीका को विसं १६२० भाद्रपद शुक्ला दशमी के दिन ईडर के ऋषभदेव जिनालय में लिखा है। इस टीका संशोधन ज्ञानभूषण भट्टारक ने किया है । सुमतिकीर्ति सिद्धान्तवेदि एवं निग्रन्थाचार्य थे । इनका समय १६ वीं शताब्दी का अन्तिम -243 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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