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________________ पाँचवाँ खण्ड : वर्गणा इस खण्ड में कुल ६८३५ सूत्र हैं। स्पर्श, कर्म एवं प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वार के साथ, बन्धन अनुयोग के अंतर्गत बन्ध-बन्धक, बन्धनीय एवं बन्धविधान का चार अधिकारों में वर्णन किया गया है। इस रचना का उद्देश्य मात्र यह बताता है कि जीव को संसार बन्धन से छुटकारा देकर दुःख समूह से निवृत्ति प्राप्त कर केवलज्ञान प्राप्त करने के महात्म्य को दर्शित किया गया है। सम्पूर्ण कर्मों के बन्धन से मुक्ति पाकर मोक्षसुख पाने का विधान विवेचित किया गया है। टीका ग्रंथ इन पाँचों खण्डों की रचना आचार्य धरसेन के शिष्य आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि ने ईसा की प्रथम सदी में कुल ६८३५ सूत्रों में निबद्ध किया है। इस ग्रंथ पर ८वीं सदी में आचार्य द्वारा ७८,००० श्लोक प्रमाण धवला नामक मणिप्रवाल शैली में टीका साहित्य की रचना की गई है। छठवाँ खण्ड : महाबन्ध यह कर्मप्रकृति प्राभृत का छठा खण्ड है। इसकी रचना आचार्य भूतबलि द्वारा की गई है। इसमें कुल ४०,००० गाथायें प्राप्त हैं। प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध इन चार प्रकार के बन्धतत्त्व का विवेचन किया गया है। इसमें २४ अनुयोगद्वारों का विस्तृत परिचय दिया गया है। इस खण्ड पर महाधवल नामक टीका साहित्य ८वीं सदी में लिखा गया है। परवर्ती आचार्यों द्वारा लिखा गया टीका साहित्य १. आचार्य कुन्दकुन्द (पद्मनन्दि) द्वारा परिकर्म नामक टीका की आदि के तीन खण्डों पर प्राकृत भाषा में १२ हजार श्लोक प्रमाण रचना की गई है। ये आचार्य प्रथम टीकाकार है। २. आचार्य शामकुण्डाचार्य द्वारा आदि के पाँच खण्डों पर तथा कषायपाहुड ग्रंथ पर १२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत, संस्कृत एवं कन्नड भाषा में रचना हुई है। ये आचार्य द्वितीय टीकाकार हैं। ३. तृतीय टीकाकार के रूप में तुम्बुलूर आचार्य प्रसिद्ध हैं। इन्होंने आदि के पाँच खण्डों पर तथा कषायपाहुड (प्राभृत) पर ८४ हजार श्लोक प्रमाण चूडामणि नामक महान कन्नड भाषा में टीका की रचना की है। इसके अलावा छठवें खण्ड पर पंचिका नामक पद विवरण मूल ७ हजार श्लोक प्रमाण रचना की है। कुल टीका ९१ हजार श्लोक प्रमाण विशाल साहित्य की रचना की है। ४. चतुर्थ टीकाकार के रूप में आचार्य समंतभद्र हैं। उन्होंने खण्डों पर अध्ययन प्रस्तुत करके ४८ हजार श्लोक प्रमाण टीका की रचना की है। ५. पाँचवें टीकाकार के रूप में बप्पदेव का नाम प्रख्यात है। इन्होंने छहों खण्ड तथा कषायप्राभृत साहित्य पर कुल -237 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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