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________________ 28. षट्खण्डागम का मूल्यांकन - डॉ. जयकुमार उपाध्ये, नई दिल्ली आगम साहित्य एवं श्रुतधर परम्परा लोकनायक तीर्थंकर महावीर के लोकमंगल उपदेश को दिव्यध्वनि कहते हैं। यह दिव्वध्वनि समवसरण नामक धर्मसभा में प्रकट होती है। इस सभा में देव, मनुष्य और पशु समान रूप से उपस्थित होकर धर्मोपदेश सुनते हैं। यह वाणी आज से २६०० वर्ष पूर्व प्रकट हुई थी। महावीर के प्रथम शिष्य गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति गणधर हुए। इन्होंने अपने निर्मल ज्ञान से सम्पूर्ण उपदेश का संकलन कर लिया। तीर्थंकर वाणी का संकलन ही आगम साहित्य है। । यह उपदेश १२ अंगों में निबद्ध है। यह तीर्थंकर वाणी भगवान महावीर के परिनिर्वाण के उपरान्त ६८३ वर्ष तक गुरु-शिष्य परम्परामूलक मौखिक रूप से सुरक्षित रही। इस परम्परा को श्रुत परम्परा कहा है। यह श्रुतधर आचार्य क्रमशः ६२ वर्ष में गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामि तीन केवली हुए हैं। १०० वर्ष में विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन एवं भद्रबाहु ५ श्रुतवली हुए हैं । १८१ वर्ष में ग्यारह आचार्य दशपूर्वधारी हुए हैं। वे विशाखाचार्य, प्रौष्टिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिलिंग, देव, धर्मसेन नाम से प्रसिद्ध हैं। अगले १२३ वर्ष में नक्षत्र, जयपाल, पाण्डव, ध्रुवसेन एवं कंस ५ एकादशांगधारी हुए हैं। अगले ९९ वर्ष में सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु एवं लोहाचार्य ऐसे चार आचार्य क्रम से दस, नव, आठ अंगधारी हुए हैं। अंत में ११८ वर्ष में एक अंगधारी श्रुश्रु अर्हद्वलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त एवं भूतबली आचार्य हुए हैं। यही धरसेन आचार्य षट्खण्डागम के कर्ता हैं । श्रुतपद के पर्यायवाची आगम, सिद्धान्त, प्रवचन, जिनवाणी, सरस्वती आदि हैं। यह वाणी पूर्वापरविरूद्ध आदि दोषों से रहित समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला आप्तवचन है। यह आगम साहित्य द्रव्यश्रुत एवं भावश्रुत नाम से प्रसिद्ध है । द्रव्यश्रुत अक्षरात्मक है और भावश्रुत अर्थ एवं भाव प्रधान है। द्रव्यश्रुत अंग एवं पूर्व नाम से प्रसिद्ध है। बारहवें दृष्टिवादांग के पाँच भेद हैं- १) परिकर्म, २) सूत्र, ३) प्रथमानुयोग, ४) पूर्वगत तथा ५) चूलिका है। चौथे भाग पूर्वगत के १४ नाम प्रसिद्ध हैं, उनमें दूसरा पूर्व आग्रायणीय है। इस पूर्व के ज्ञाता आचार्य धरसेन थे। उन्होंने आग्रायणीय पूर्व का विस्तृत विवेचन करते हुए उसके १४ वस्तु बतायें हैं। उनमें पाँचवाँ वस्तु नामक चयनलब्धि है। उस चयनलब्धि में २० प्राभृतक की रचना की है। उसके चौथे प्राभृतक का नाम कर्मप्रकृति प्राभृतक है। उस कर्मप्रकृति के २४ अनुयोग हैं। उन अनुयोगद्वार के माध्यम से षट्खण्डागम की रचना की गई है। खण्ड सिद्धान्त के ज्ञाता आचार्य धरसेन Jain Education International नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली के अनुसार आचार्य धरसेन को आचारांग के पूर्ण ज्ञाता मानते हैं, परन्तु धवला टीका ग्रंथ के मध्य उन्हें अंगग्रंथ व पूर्वग्रंथ के एकदेश ज्ञाता माना है। वे श्रुतवत्सल श्रमण थे। विषम काल के प्रभाव से श्रुत - ज्ञान का लोप होने की चिन्ता ने उन्हें प्रेरित किया कि श्रुत संरक्षण किया जाये। उस समय वे सौराष्ट्र के गिरिनगर 235 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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