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मार्ग का वर्णन हैं। सभी संस्कारों को अनित्य, दुःख और अनात्म समझते हुए मनुष्य को चाहिये कि “ वाणी की रक्षा करने वाला और मन से संयमी रहे तथा काया से पाप न करे। 'पकिण्णक-वग्ग ' (वर्ग २१) में अहिंसा और शरीर के दुःखदोषानुचिन्तन आदि का वर्णन हैं। निरय-वग्ग (वर्ग २२) में बतलाया गया है कि कैसे पुरुषनरकगामी होते हैं। नाग-वग्ग (वर्ग २३) में नाग (हाथी) के समान अडिग रहने का उपदेश दिया गया है। " जैसे युद्ध में हाथी धनुष से गिरे वाण को सहन करता है, तृष्णा को समूल खोद डालने का उपदेश है। अपने पास दर्शनार्थ आये हुए आदमियों को सम्बोधित करते हुए भगवान् कहते हैं, इसलिए तुम्हें कहता हूँ , जितने यहाँ आये हो, तुम्हारा सब का मंगल हो, जैसे खस के लिए लोग उषीर को खोदते हैं, वैसे ही तुम तृष्णा की जड़ को खोदो।" ' भिक्खु वग्ग '(वर्ग २५) में भिक्षुओं के लिए लोमहर्षक उपदेश है। हे भिक्षु ! इस नाव को लीचोलीचलने पर यह तुम्हारे लिए हल्की को जाएगी। राग और द्वेष का छेदन कर फिर तुम निर्वाण को प्राप्त कर लोगे। पुनः हे भिक्षु ! ध्यान में लगो। मत असावधानी करो। मत तुम्हारा चित्त भोगों के चक्कर में पड़े। प्रमत्त हो कर मत लोहे के गोले को निगलो। “हाय दुःख !' कह कर दग्ध होते हुए मत तुम्हें पीछे क्रन्दन करना पड़े। भिक्षुओं ! जैसे जूही कुम्हलाये हुए फूलों को छोड़ देती है, वैसे तुम राग और द्वेष को छोड़ दो"
‘ब्राह्मण-वग्ग ' (वर्ग २६) में ब्राह्मणों के लक्षण गिनाये गए हैं। २६/१३-४१ गाथाएँ तो बड़ी ही काव्यमय हैं। भगवान् की दृष्टि में वास्तविक ब्राह्मण कौन है, इस पर कुछ गाथाएँ दृष्टव्य हैं:
माता और योनि में उत्पन्न होने से मैं किसी को ब्राह्मण नहीं कहता। वह तो “ भोवादी' ('भो ' 'भो') कहने वाला, जैसा ब्राह्मण उस समय एक दूसरे को सम्बोधन करते समय करते थे और संग्रही है। मैं तो ब्राह्मण उसे कहता हूँ , जो अपरिग्रही और लेने की इच्छा न रखने वाला है।
जो बिना दूषित चित्त किये गाली, वध और बन्धन का सहन करता है, क्षमा बल ही जिसकी सेना का सेनापति है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
कमल के पत्ते के जल और आरे के नोक पर सरसों की भाँति जो भोगों में लिप्त नहीं होता,उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो विरोधियों के बीच विरोध-सहित रहता है, जो दंडधारियों के बीच दंड-रहित रहता है, संग्रह करने वालों में जो संग्रह-रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिसने यहाँ पुण्य और पाप दोनों की आसक्ति को छोड़ दिया, जो शोक-रहित, निर्मल और शुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जिसके आगे, पीछे और मध्य में कुछ नहीं है, जो सर्वत्र परिग्रह-रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ आदि।
ऊपर धम्मपद की विषय-वस्तु के स्वरूप दिया गया है, उससे स्पष्ट है कि उसमें नीति के वे सभी आदर्श संगृहीत हैं, जो भारतीय संस्कृति और समाज की सामान्य सम्पत्ति है।
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