________________
समुद्र के मध्य में, न पर्वतों के विवर में प्रवेश कर संसार में कोई स्थान नहीं है, जहाँ रह कर, पापकर्मों के फल से प्राणी बच सके।' ‘दंडवग्ग ' (वर्ग १०) में कहा गया है कि ' जो सार प्राणियों के प्रतिदंड त्यागी है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, वही भिक्षु है।'' जरावग्ग' ( वर्ग ११) में वृद्धावस्था के दुःखों का दर्शन है। इसी वर्ग में संसार की अनित्यता की याद दिलाते हुए यह मार्मिक उपदेश दिया गया है, जब नित्य ही आग जल रही है तो क्या हँसी है, क्या आनन्द मानना है। अन्धकार से घिरे हुए तुम दीपक को क्यों नहीं ढूंढते हो ? इसी वर्ग में भगवान् के उद्गार भी सन्निहित हैं, जो उन्हें सम्यक् सम्बोधि प्राप्त करने के अनन्तर ही किये थे, अनेक जन्मों तक बिना रुके हुए मैं संसार में दौड़ता रहा। इस (काया रूपी) कठोरी को बनाने वाले (गृहकारक ) को खोजते खोजते पुनः पुनः मुझे दुःख - मय जन्मों में गिरना पड़ा। आज हे गृहकारक ! मैंने तुझे पहचान लिया। अब फिर तू घर नहीं बना सकेगा। तेरी सारी कड़ियाँ भग्न कर दी गई। गृह का शिखर भी निर्बली हो गया। संस्कार-रहित चित्त से आज तृष्णा का क्षय हो गया। अत्तवग्ग (वर्ग १२) में आत्मोन्नति का मार्ग दिखाया गया है। इसी वर्ग की प्रसिद्ध गाथा है। पुरुष आप ही अपना स्वामी है, दूसरा कौन स्वामी हो सकता है ? अपने को भली प्रकार दमन कर लेने पर वह दुर्लभ स्वामी को पाता है।
336
लोक-वग्ग (वर्ग १३) में लोक सम्बन्धी उपदेश हैं। बुद्धवग्ग (वर्ग १४ ) में भगवान् बुद्ध के उपदेशों का सर्वोत्तम सार दिया हुआ है - " सारे पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना, अपने चित्त को परिशुद्ध करना-यही बुद्धों का शासन है। निन्दा न करना, घात न करना, भिक्षु नियमों द्वारा अपने को सुरक्षित रखना, परिमाण जानकर भोजन करना, एकान्त में सोना-बैठना, चित्त को योग में लगाना - यही बुद्धों का शासन है। सुख-वग्ग ' (वर्ग १५) में उस सुख की महिमा गाई गई है, जो धन-सम्पत्ति के संयोग से रहित और केवल सदाचारी और अकिंचनतामय एवं मैत्रीपूर्ण जीवन से ही लभ्य है । भिक्षु कहते हैं, वैर-बद्ध प्राणियों के बीच अवैरी होकर विहरते हुए अहो ! हम कितने सुखी हैं। वैर-बद्ध मानवों में हम अवैरी होकर विहरते हैं । भयभीत प्राणियों के बीच में अभय होकर विहरते हुए अहो ! हम कितने सुखी हैं। भयभीत मानवों में हम अभय होकर विहरते हैं। आसक्ति-युक्त प्राणियों के बीच में अनासक्त होकर विहरते हैं। पियवग्ग (वर्ग १६) में यह कहा गया है कि जिसके जितने अधिक प्रिय हैं, उसको उतने
अधिक दुःख हैं। प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय उत्पन्न होता है, प्रेम से मुक्त को कोई शोक नहीं, फिर भय कहाँ से ? कोधवग्ग (वर्ग १७) की मुख्य भावना है। अक्रोध से क्रोध को जीतो, असाधु को साधुता से जीतो, कृपण को दान से जीतो, झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतो । मल्लवग्ग (वर्ग १८) में भगवान् ने कहा है कि अविद्या ही सबसे बड़ा मल है। भिक्षुओ ! इस मल को त्याग कर निर्मल बनो।
धम्मट्ठवग्ग (वर्ग १९) में वास्तविक धर्मात्मा पुरुष के लक्षण बतलाये गये हैं। " बहुत बोलने से धर्मात्मा नहीं होता। जो थोड़ा भी सुन कर शरीर से धर्म का आचरण करता है और जो धर्म में असावधानी नहीं करता, वास्तव में धर्मधर है। इसी प्रकार मौन होने से मुनि नहीं होता। वह तो मूढ़ और अविद्वान् भी हो सकता है। जो पापों का परित्याग करता है, वही मुनि है । चूँकि वह दोनों लोकों का मनन करता है, इसीलिये वह मुनि कहलाता है।” इसी वर्ग में भगवान् का यह उत्साहकारी मार्मिक उपदेश भी है, "भिक्षुओं ! जब तक चित्त-मलों का विनाश न कर दो, चैन मत लो - भिक्खू ! विस्सासमापादि अप्पत्ती आसवक्खयं । ' मग्गवग्ग' ( वर्ग २०) में निर्वाण - गामी
"
216
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org