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________________ आगमों में विपाकसूत्र में आयुव्वेय- आउव्वेय (आयुर्वेद) अर्थात्, चिकित्सा शास्त्र का नामोल्लेख है । * पाणावाय में 'आयुवेय' शब्द का ही प्रयोग हुआ है । अन्य आगमों में ' तिगिच्छिय' (ठाणांग ४) तिगिच्छ (उत्तरा.१६, पिंडनिर्युकित २१५) तिगिच्छिाण तिजिंछा (पिंडनिर्युकित १८८) तेरच्छिअ ( विपाकसूत्र १/१/पु.१३३) ओसह. भेसज्ज ( (उपासकदशांग ) तिगिच्छा (मूलाचार४५२) आदि शब्द आयुर्विज्ञान से सम्बन्धित हैं । प्राचीन प्राकृत आगमों में आयुर्वेद - प्राकृत आगम ग्रन्थ श्रमण संस्कृति के प्रकाश स्तम्भ हैं । इन में संस्कृति के वे सभी अंग समाविष्ट हैं, जिनमें व्यवहार से लेकर वैराग्य की समग्र वस्तु का आलेख है । आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति आदि भी इनमें पर्याप्त है ।' आचारंगसूत्र के लोकविजय अध्ययन में. रोगासमुप्पाया समुप्पजंति (सूत्र ८२) के माध्यम से रोगों की उत्पत्ति के स्थान का संकेत किया है । वृत्तिकार ने इसकी विस्तार से सूचना दी है । सूत्रकृतांग (३/४/१०) विपाकसूत्र (१/१/पु. १३३) ज्ञाताधर्म ( ) उपासकदशांग ) (पु.२) व्याख्या प्रज्ञप्ति (पु. ६६४), दसवेयालिय (३/ १०), स्थानांग ३/४/१४) प्राकृत के इन प्रमुख ग्रन्थों में आयुर्वेद सम्बन्धी विवरण प्राप्त हैं । षट्खंडागम (४/३२), प्रवचनसार (२.४०) समयसार (गा. १८६) धव पु. पृ. १७३, योगशास्त्र (१/ ३८), भावपाहुड (३६) तिलोयपण्णत्ति (४/१०७८), भगवती आराधना (१२१७), मूलाचार (४५२), पाणावाय (१०६), /धम्मरसायण (१०), कुमारपालचरियं (गा. १५), उत्तराध्ययन (१५), गोम्मटसार कर्मकांड (५७) नियमसार (गा.६), निशीथचूर्णी (१८), अवाश्यकचूर्णी (पू. ३६५) बृहतकल्पभाष्य, (२) जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति (२४), ओघानिर्युक्ति (३६८), व्यवहारभाय्ष (४/१) महाबंध (१ / ८) आदि प्राकृत ग्रन्थों में आयुर्वेद के उल्लेख प्राप्त हैं । संमतभद्र, पूज्यपाद, पात्रकेसरी, सिह्नसेन, मेघनाद, सिंहनाद, दसरथमुनि, गोम्मटदेव, पादलिप्त, नागार्जुन, धनञ्जय, दुर्गदेव. जिनदास, दुर्लभराज, हेमचंद, गुणाकार, आशाधर, हंसदेव, चम्पक, यशः कीर्तिमुनि, हरिपाल, मेस्तुंग, सिंहदेव, अनन्तदेवसूरि, नागदेव, माणिक्यचंद, चारुचंड, श्रीकण्ठ-सूरी, पूर्णसेन, जिनदास, नयनसुख, हर्षकीर्ति, जयरत्नगणि, लक्ष्मकुशल, हंसराज, हस्तिरूचि, हेमनिधान, नयनशेखर, महिमसमुद्र, धर्मवर्धन, लच्छीवल्लभ, मानसुनि, विनयमेरुगणि, रामचंद, ज्ञानमेरु, नगराज, जोगीदास, समरथ, गुणविलास, लक्ष्मीचंद, दीपकचंद, चैनसुखयति, रामविजय, मलुकचंद, सुमतिधीर, कर्मचंद, हंसराज, गंगाराम, ज्ञानसार आदि कवियों के काव्यों में आयुर्विज्ञान के कुछ तथ्य उपलब्ध हैं । दक्षिणभारत के मारसिंह, कीर्तिवर्मा सोमनाथ, अमृतनंदि, मंगराज, श्रीधरदेव, वाचरस, पद्यरस, मंगराज (द्वितिय) मंगराज (तृतीय) आदि का नाम भी आयुर्वेद के लिए प्रसिद्ध है । मध्ययुग में चिकित्सा शास्त्र के लिए जैन चिकित्सा पद्धति का विशेष अवदान रहा है, जो संस्कृत के अतिरिक्त राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती, दक्षिण भारतीय भाषाओं आदि में हैं । परन्तु प्राकृत भाषा में एक ही ग्रन्थ की सूचना प्राप्त है । जोणिपाहुड प्राकृत का स्वतन्त्र ग्रन्थ है, जिसे हरिषेण द्वारा रचित कहा जा सकता है । -203 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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