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________________ 24. प्राकृत का आयुर्वेद साहित्य - एक मूल्यांकन -डॉ. उदयचन्द्र जैन आयुर्वेद चिकित्सा का विज्ञान' है, जीवन की कला है तथा यह मानव संरचना के सर्वोकृष्ट जीवन के अस्तित्व की रक्षा करनेवाला तत्व है । जैसा कि प्राणवाद पूर्व ग्रन्थ से ही विदित होता है कि जिनवर ने सभी भाषाओं के माध्यम से जीवन एवं प्राणों की गति आदि भवों का निरूपण किया था -।" वणिज्जई गईभेया जिणवरदेवेहि सव्वभासाहिं ।' यद्यपि जीवन के साथ ही या मानव की उत्पत्ति के साथ ही आयुर्वेद का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । मानव भूख-प्यास, आदि-व्याधि की रोक थाम के लिए सदैव ही प्रयत्न करता आया है । प्राणों की रक्षा, शक्ति की वृद्धि आदि के लिए सदैव प्रयत्न करता आया है । ज्ञान के विकास के साथ आयुर्विज्ञान भी नए नए अनुसंधानों के साथ जन्म लेता रहा है। पाणावायं पुव्वं तेरहकोडिपयं णमंसामि । जत्थ वि कायचिकिच्छा पमुहटेंगायुवेयं ।। -अंग पण्णत्ति. १०७॥ जिस आयुर्वेद में तेरह करोड़ पदों से जीवन की व्याधियों का कथन है तथा कायचिकित्सा सम्बन्धी आठ प्रमुख कारण जिसमें विद्यमान हैं, उस प्राणावाद को मैं नमन करता हूँ। इस प्राणावाद में प्राणों की रक्षा के प्रमुख कर्म जाग्गुलि प्रक्रम के साधक, अनेक भेद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुरूप तत्वों के अनेक भेद, ईगला, पिंगला आदि प्राण, दश प्राणों के स्वरूप का निरूपण, प्राणों के उपकारक एवं अपकारक द्रव्य आदि का वर्णन है। पूर्व में जब लिपिविज्ञान का विकास नहीं हुआ था, उस समय और लिपि विज्ञान के जन्म लेते ही जो कुछ सबसे पहले हमारे सामने आया, वह प्राकृत आगम ग्रन्थों के पन्नों पर अंकित हुआ । ___ आगम के व्याख्याकारों ने, 'आयुर्विज्ञान' के विषय को अपनी ज्ञान कला से आगे बढ़ाया । ऋषिमहर्षियों, योगी-साधकों ने इसे अधिक गतिशील बनाया । श्रमणों के साथ स्वतन्त्र जानकार लोगों के द्वारा आयुर्विज्ञान पर बहुत कुछ अपने अपने समय में लिखा गया । जैन मनीषियों ने जो कुछ लिखा वह अभी भी पर्याप्त खोज एवं अनुसन्धान के अभाव में मानों विलुप्त ही सा प्रत्तीत हो रहा है । जहाँ तेरहकोटी पद रूप, 'प्राणिवाद पूर्व' ग्रन्थ का एक आगम है, उसी का अभी पता नहीं फिर अन्य लिखे गए 'आयुर्विज्ञान' के ग्रन्थों की उपलब्धी कैसे खोजी जाय । कल्याणकारक नामक ग्रन्थ को छोड़कर अन्य ग्रन्थ कहाँ गये इस पर भी पार्याप्त अनुसन्धान की आवश्यकता है । अभी अभी ‘जोणिपाहुड' प्राकृत ग्रन्थ की प्रति प्राप्त हुई है । मेरा यह विश्वास है कि इस प्रकार के प्राकृत में भी कई आयुर्विज्ञान के ग्रन्थ होंगे । -- 202 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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