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________________ वस्त्राभूषण राजन्य-परिवारों को छोड़कर सामान्य जनता की वेशभूषा सादी थी। चूँकि पुष्पदन्त दक्षिण-भारत से सम्बन्ध रखते थे, अतः उन्होंने वहाँ के लोगों की जैसी वेशभूषा देखी थी, उसी की चर्चा की है। वहाँ के लोग सामान्यतया रंग-बिरंगी एक चौडी किनारीदार धोती पहिनते थे और एक चद्दर ओढ़ते थे। यह सम्भव इसलिये भी था कि वहाँ का जलवायु समशीतोष्ण था। कुछ लोग पगड़ी भी बाँधते थे। व्यापारी-वर्ग जेब वाली रुइ की बंडी और अंगरखा पहिनते थे। पर्यटक मार्को पोलो जब वहाँ भ्रमणार्थ गया तो उसे आश्चर्य हुआ था कि सिले हुए कपड़े पहिनने का वहाँ रिवाज कम था, इसलिये वहाँ दर्जी का कार्य करने वाले अनुपलब्ध थे। सामान्य महिलाएँ बड़ी-बड़ी रंगीन ऐसी साड़ियाँ पहिनती थीं, जो आधी ओढ़ी और अधी पहिनी जाती थीं। नृत्य-प्रय महिलाएँ नृत्य के समय लहंगा एवं जरीदार वस्त्र पहिनती थीं। राज्य-सभाओं में गणिकाएँ झीनीझीनी-तनजेव का कटिवस्त्र पहिनती थीं। (तिसट्टिमहा. ७३/२-३-६)। सभी नारियाँ विविध प्रकार के केशश्रृंगार किया करती थीं। चमेली के तेल का प्रयोग किया जाता था। सिर के पीछे केशों का जूडा (जस. ३/२१) वाँधा जाता था। वे उस जूड़े में सुगन्धित पुष्पों की छोटी माला तथा मोतियों की लड़ें लटका लेती थीं। साज-सज्जा करते समय महिलाएँ मुख पर कर्पूर का लेप लगाती थीं (तिसट्टिमहा. ९०/३/१३)। मनोरंजन के साधन मनोरंजन के साधनों में भीतरी एवं बाहिरी दोनों प्रकार के मनोरंजक खेलों के उल्लेख मिलते हैं। भीतरी मनोरंचन-साधनों में शतरंज, चौपड एवं द्यूत-क्रीड़ा के उल्लेख मिलते हैं (तिसट्टिमहा. ५०/९/६ तथा णाय. ३/१३/४)। द्यूत-गृहों में सभी को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। किन्तु शासन का उन पर नियन्त्रण रहता था। जुआरियों से कर (टेक्स) भी लिया जाता था (वही)। बाहरी (आउटडोर) मनोरंजनों में नौकाओं द्वारा जल-बिहार, वर्षाऋतु में दोलोत्सव (तिसट्टिमहा. ७०/१५/८, णाय. ३/८/११, ३/११) चौवाण (चौगान) (तिसट्ठिमहा. ९१/१६/१०) के उल्लेख मिलते हैं। नटों के खेल भी प्रायः होते रहते थे। यथा - ___णंदिं दिट्ठउ णचंतु णडु (तिसट्टिमहा. ८२/१६/१६) संगीत की दृष्टि से वीणा उस समय का प्रमुख वाद्य-यन्त्र था (णाय. ३/५/८)। राज्य-सभाओं में इसके कार्यक्रम होते रहते थे। युगल-नृत्य में महिला-पुरुष के एक साथ नृत्य करने को अच्छा नहीं माना जाता था। बल्कि महिलामहिला तथा पुरुष-पुरुष के युगल-नृत्य की परम्परा अच्छी मानी जाती थी जैसा कि पुष्पदन्त ने स्वयं लिखा है - विण्णि वि णारिउ विण्णि वि णरवर जइ णच्चंति होति ता मणहर ।।-(तिसट्टिमहा. ३२/३/१) - 198 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.006701
Book TitleUniversal Values of Prakrit Texts
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherBahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
Publication Year2011
Total Pages368
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size19 MB
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