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प्राकृत भाषा परम्परा
१. तीर्थंकर महावीर, सम्राट अशोक एवं खारवेल के उपदेशों में, आदेशों में, और
देदीप्यमान आगामों में प्रयुक्त तथा अनेक नाटक और काव्यों की भाषा, प्राचीन,
सामान्य जनों द्वारा प्रयुक्त समस्त अपभ्रंश अदि बोलियों की आर्य भाषा प्राकृत है । २. प्राचीन परम्परा के समता और ज्ञान के धारी हमारे श्रमणों के द्वारा कथा, स्तुति,
सूत्र आदि रूप में जो सृजित प्राकृत ग्रन्थ हैं वे जीवनमूल्य, नैतिकता और दर्शन का
साक्षात्कार कराने के सुन्दर कोश हैं । ३. भूगोल, ज्योतिष, रसायन, विज्ञान, आचार, राजनीति और राष्ट्र की संस्कृति-कला
और जीवनमूल्य के रहस्य को प्रकट करने वाले ज्ञानमयी ऊन प्राकृत ग्रन्थों के अध्ङ्गन से हमारा ज्ञान सुविस्तृत होता है ।
४. प्राकृत साहित्य के गुणधर, कुन्दकुन्द, स्थूलभद्र, वट्टकेर, यतिवृषभ, शिवार्य,
जिनभद्र, हाल, विमलसूरि, हरिभद्र, स्वामी कार्तिकेय, स्वयंभू, पुष्पदंत, नेमिचन्द
सिद्धान्तचक्रवर्ती, णेमिचन्द्रसूरि, एवं वररूचि आदि प्रमुख रचनाकार हैं। ५. स्वामी भट्टारक चारुकीर्ति जी के सद्प्रयत्नों से श्रवणबेलगोला में बाहुबली प्राकृत
विद्यापीठ के तत्त्वावधान में आयोजित इस अंतराष्ट्रीय प्राकृत संगोष्ठी में ऐसा प्ररीत होता है मानों प्राकृत भाषा की विश्व परम्परा ही दक्षिण भारत में अवतरित हुई है ।
अनुवाद : श्रीमती डा. सरोज जैन
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