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________________ महावीर जयन्ती पर विचार (1952) : (547) उपयोगिता वहीं झलकेगी, जब हम भौतिक दृष्ट्या सबल होंगे, और तभी संतोषित हमारा मन आत्मकल्याण की ओर अधिक उन्मुख होगा। यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह सैद्धान्तिक विश्लेषण है, प्रयोग में तो विषमता है, धनी लोग मन्दिर जाते हैं, दान-पुण्य करते हैं, पर विरक्त मन से, दबाव से या अन्य ऐसे ही कारणों से प्रमुदित हो दान देने वाले बिरले ही हैं। फलस्वरूप जब तक हमारे मन और क्रिया में समता नहीं आती, हमारी किसी भी प्रवृत्ति का मूल्य नहीं माना जा सकता। जैनों का वर्तमान सार्वजनिक उपेक्षित दर्शन इसी वैषम्य का ही तो परिणाम है। हां, इस व्यक्तिगत समता के अतिरिक्त कर्मवाद का आश्रय लेकर स्वावलम्बी बनाने की ओर जो महावीर का प्रयास है, वह स्तुत्य है। यह मनुष्य को अदृश्य अलौकिक शक्ति के कटघरे से बाहर निकाल सक्रिय और 'कर्मण्येवाधिकार' की ओर अग्रसर करता है। कर्मों के शुभाशुभ होने का निर्णय व्यक्ति के ही अधीन है। अशिक्षित जिसे शुभ मानता है, शिक्षित उसे अशुभ भी मान सकता है, पर इस वैषम्य के लिये जीवन के विशाल क्षेत्र की ओर भी दृष्टिपात करना पड़ेगा। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कुछ साधारण अनुभूतियां होती हैं, और कुछ असाधारण और अपवादरूप। उन अनुभूतियों में "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" जो साधरणी हैं, वे शुभ और अन्य अशुभ मानी जा सकती हैं । यह पूर्ण न्याय नहीं है और जैसा पहले कहा गया है - व्यक्तिगत है। उनकी दृष्टेष्टा विरोधी समन्वयवादी दार्शनिक प्रतिपादना भी इसी ओर हमें ले जाती है। उनके जीवन की विभिन्न घटनायें हमें उनकी प्रगतिशीलता की ओर बरबस आकृष्ट करती हैं। क्योंकि आज उससे भी बढ़कर सामाजिक दशा असन्तुलित है। फिर क्यों न हम उनके जीवन से सबक लें ? एक पथ-भ्रष्ट कुलीन कन्या के घर भोजन करना, कुम्हार और शूद्रों को दीक्षित करना, आर्यिका संघ स्थापित करना आदि घटनायें समाजिक स्तर को समान लाने के प्रयत्न ही तो हैं। आज हम क्यों उनका प्रयोग नहीं करते? और मैं ऐसा सोचता हूं कि इन्हीं के अप्रयोग के कारण हमारी सुख की वृत्ति ने लुप्त होकर हमें ढोंगी बना दिया है। जन्मना जातिवाद का विरोध भी इसी दिशा में एक कदम है। वही सबसे बड़ा, सामाजिक विषमता का प्रज्वालक है। उच्च-नीच की भावना भी 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' से शान्त करने के लिये प्रयत्न किया गया था । परन्तु आश्चर्य तो नहीं, पर विचित्र प्रतीत हो रहा है कि कुछ ही वर्षों में सारक प्रयोग का नामोनिशान मिट गया। ठीक ही तो है, पार्श्वनाथ के उपदेश 100 साल न टिक सके, तो महावीर के 100 साल भी क्यों टिकते ? जब अवसर्पिणी काल ही है, उन्नति होने को तो है ही नहीं, और यही तो जैन शास्त्रों में लिखा है। इसलिये प्रवर्तित मार्ग की तो कोई चर्चा ही आज लोगों के गले उतरना दुष्कर है, उसके प्रयोग की बात तो दूर रही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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