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(532) : नंदनवन
प्रकार, माया-युद्ध और गति युद्ध का उल्लेख भी है। इस प्रकार, इस पुराण में लगभग 64 साधित विद्याओं के उल्लेख हैं। ये विद्याधरों एवं विशिष्ट लोगों में पाई जाती हैं और असाधारण एवं परालौकिक प्रभाव उत्पन्न करती हैं। आध्यात्मिक विद्यायें।
प्रत्येक पुराण का मुख्य उद्देश्य कथोपकथन के माध्यम से संसार की विचित्र गति बताते हुये संसारी जीवों को आध्यात्मिक प्रगति की ओर मोड़ना एवं प्रवर्तन कराना है। पूर्वोक्त विद्यायें संसार की गति को चित्रित करती हैं। इसके विपर्यास में, आध्यात्मिक विद्यायें आध्यात्मिक एवं स्थायी सुख प्राप्ति की दिशा का अवबोध एवं प्रेरणा देती हैं। ये विद्यायें लौकिक जीवन नहीं, लोकोत्तर जीवन प्रदान करती हैं। अतः इन्हें विद्याओं की कोटि में नहीं गिना जाता। इनकी अपनी अलग ही कोटि है। ___ अध्यात्म विद्याओं के अन्तर्गत श्रावक विद्या एवं साधु-विद्या के रूप में दो विद्यायें होती हैं। इन्हें समग्रतः धर्म-विद्या भी कहा जा सकता है जिसके ज्ञान और आचरण से जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक आदि के दुःख नष्ट हो जाते हैं और अभ्युदय प्राप्त होता है। श्रावकविद्या के अन्तर्गत पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का ज्ञान और अनुपालन समाहित हैं। साथ ही, सप्त व्यसनों का त्याग इस आचार का प्राथमिक नियम है जिसका ज्ञान और पालन अनिवार्य है।
साधु-विद्या के अन्तर्गत पांच समिति, तीन गुप्ति एवं पांच महाव्रतों के तेरह-चारित्री रूप का प्रारम्भिक ज्ञान और अभ्यास अपेक्षित है। इस विद्या के आचरण के अन्तर्गत दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा (बारम्बार चिन्तन), बाईस (भौतिक एवं मानसिक) परीषहों पर विजय, पांच प्रकार का सामायिकादि चारित्र और बारह प्रकार का तप-कुल मिलाकर 69 प्रकार की प्रक्रियाओं का ज्ञान और अभ्यास समाहित है। इस विद्या के अग्रिम उत्तरवर्ती चरण में ध्यान-विद्या का अत्यन्त महत्त्व है। साधु सुप्रतिष्ठ के प्रकरण में विशिष्ट तप
और उपवासों में 36 प्रकार और उनके अभ्यास की विधियां बताई हैं (अध्याय 24)। इसी प्रकार, 56वें अध्याय में ध्यान, पंच-विध आचार एवं तप के विभिन्न रूपों का विवरण दिया है। यह साधु-विद्या ही जीवन को परमसुखमय बनाने का उपाय है। साधु-विद्या के विषय में यह बताया गया है कि साधु को अपनी विद्या के प्रदर्शन या प्रदान के आश्वासन से आहार प्राप्त नहीं करना चाहिये। यह विद्यापिंड या विद्यादोष कहलाता है। साधुओं को तो विद्याधर श्रमण या विद्याधर जिन बनना चाहिये जिससे वे विद्या प्रभावों के न तो वशीभूत हों और न ही उनका प्रभाव प्रदर्शित करने की इच्छा करें।
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