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________________ (514) : नंदनवन एच-डी. की थी। यह शोध-प्रबन्ध प्रकाशित भी हो चुका है। यहीं से आर. विलियम्स ने दिगम्बर और श्वेताम्बर श्रावकाचारों का अध्ययन कर 'जैन योगा' प्रकाशित की (1963)। जिसमें बौद्धधर्म की तुलना में जैन धर्म की दीर्घजीविता तथा जीवन्तता का मूल आधार उसकी चतुर्विध संघ व्यवस्था को बताया गया है। ये शोध-प्रबन्ध इस तथ्य को प्रकट करते हैं कि इस काल में आगमेतर विषयों पर भी पश्चिम के मनीषियों का ध्यान गया। ऑक्सफोर्ड से ही लेडलो ने 'श्वेताम्बर परम्परा के साधु एवं गृहस्थ के सम्बन्धों पर तथा जॉन्सन ने कुन्दकुन्द के ग्रंथों पर पी. एच-डी. के प्रबन्ध 'रिचेज ऐंड रिनंसियेशन' तथा 'हार्मलैस सोल्स' के रूप में प्रकाशित किये हैं। श्रीमद् राजचंद्र पर भी एक शोध कार्डिफ में हुई है। इसी प्रकार, केंब्रिज से मारकुस बेंक्स, पाल डुंडास ने 'श्वेताम्बर समाज एवं धर्म' पर शोध की है। ये दोनों प्रकाशित भी हो चुकी हैं। अब ये जैनविद्या के विविध पक्षों पर काम कर रहे हैं। 'दी जैन्स' में इनके अनेक शोध-पत्रों की सूची दी है। जे. डी. रीनैल ने अलग ही विषय चुना है - महिलाओं में धार्मिकता। इस विषय पर अमरीका का भी ध्यान गया है। पाल डुंडास की पुस्तक 'दी जैन्स' के दो संस्करण (2002) प्रकाशित हुए हैं, और जैनधर्म के विषय में अच्छी जानकारी लोगो को हुई है। इसके पूर्व अमरीका के प्रो. पी. एस. जैनी की 'जैन पाथ आव प्योरिफिकेशन (तीन संस्करण) पर्याप्त लोकप्रिय हुई थी। इसके पूर्व आस्ट्रेलिया के डा. बाशम की 'दी वन्डर दैट वाज इंडिया' भी पर्याप्त प्रचलन में आई थी। केंब्रिज में ही डा. केरालिन हफ्री 'जैन नृतत्व शास्त्र' पर शोध को प्रश्रय दे रहे हैं। लीड्स तथा बरमिंघम विश्वविद्यालयों से सेवानिवृत्त प्रो. उर्सला किंग ने जैनविद्याओं के प्रोत्साहन में अमोघ काम किया है। इन्हीं वर्षों में एफ. डब्लू. थामस ने 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' तथा 'स्याद्वादमंजरी' का अनुवाद प्रकाशित किया। केंब्रिज के डा. ब्राउन ने भी जैन और बौद्ध धर्म का अध्ययन किया है। ये कुछ समय पूर्व ही सेवानिवृत्त हुए हैं पर अभी भी सक्रिय हैं। इनका एक लेख कैलाशचंद्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित हुआ है। आजकल लंदन भी जैनविद्या के उन्नयन का अच्छा केन्द्र बन गया है। यहां 'जैन अध्ययन विभाग' भी खुल गया है जिसके प्रभारी डा. पीटर फ्लूगल हैं। इन्होंने मेन्स विश्वविद्यालय से 'श्वेताम्बर तेरापन्थ सम्प्रदाय' पर पी. एच-डी. की है और अपने शोधपूर्ण-निबन्धों के लिये प्रसिद्ध हैं। ये अपने केन्द्र में प्रतिवर्ष एक जैन व्याख्यानमाला एवं कार्यशाला आयोजित करते हैं जहां विश्व के विभिन्न भागों से विद्वान् आते हैं। इसके शोधपत्र पाठकों में डा. एन. एल. जैन तथा नीरज जैन भी रहे हैं। इनके केन्द्र से अनेक शोधकार्य हुए हैं, जिनसे विद्यार्थियों ने एम. ए. व पी. एच-डी. की उपाधि पाई हैं। ये निरन्तर भारत आते हैं एवं कुछ न कुछ नये शोध के विषय लाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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