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________________ जैनविद्या संवर्धन में विदेशी विद्वानों का योगदान : (513) (हालैंड) से, बटजमवर्गर ने 'भारतीय परम्परा में आत्मा' पर म्यूनिख से, डा. मैटे ने 'हैम्बुर्ग से', डा. फाइफर और चन्द्रभाल त्रिपाठी ने बर्लिन से और क्रम्पलमेन ने मुंस्टर से शोध-उपाधि प्राप्त की है। डा. टुश्चेन ने मारबर्ग से 'भट्टारक प्रथा' पर काम किया है। इसी प्रकार, जेडेनबोस म्यूनिख में जैनविद्याओं को जीवित रख रहे हैं। डा. त्रिपाठी ने तो स्ट्रासवर्ग की जैन पांडुलिपियों की सूची भी प्रकाशित की है। डा. हेनेरिक जिमर ने भी भारत के दर्शन में जैन दर्शन पर 100 पेज की सामग्री प्रस्तुत की। डा. गेलडा ने जर्मनी में जैनविद्या-संवर्धकों की जैनविद्याओं में शोध और संवर्धन की रुचि की अल्पता का संकेत दिया है, पर ऐसा प्रतीत नहीं होता। वर्तमान में पहले की अपेक्षा अधिक केन्द्रों पर यह शोध हो रहा है। (ब) ब्रिटेन ___ जर्मन जैनविद्या मनीषियों के समान, ब्रिटेन के विद्वानों का विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं है। फिर भी, अनेक विद्वानों या विदुषियों द्वारा लिखित पुस्तकों के आधार पर इसका कुछ वर्णन किया जा सकता है। यह तो बताया जा चुका है कि मैक्समूलर ने ऑक्सफोर्ड में रहकर भारत-विद्या और जैनविद्याओं को विद्वत् जगत् से परिचित कराया है। ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी भारत के विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर जैनधर्म से सम्बन्धित विवरण दिये थे। इनमें ए. बार्थ (1881), जे. बी. प्राट (1916), क्षेत्र में कार्य · करनेवाली मैडम सिनक्लेयर स्टीवेंसन (1915), हार्बर्ट वारेन, लोथर वेंडल आदि ने अपनी पुस्तकों एवं अनेक लेखों के माध्यम से जैनधर्म के परिज्ञान में विदेशियों की रुचि को प्रेरित किया। श्री बुकेनन, कर्नल जेम्स टॉड (1829), बम्बई के गर्वनर लार्ड री एवं भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्जन ने भी जैन सिद्धान्तों की प्रशंसा कर उसे ब्रिटेन में लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया। इन्हीं दिनों जे. बरजैस (1903) ने 'दिगम्बरों के जैन मिथकों पर अंग्रेजी में लेख लिखे और कीथ, फर्युसन, विन्सेंट स्मिथ ने भी जैन पुरातत्त्व पर ग्रंथ लिखे। हमारा कर्तव्य है कि हम इन जैनधर्म संवर्धकों के विषय में विशेष जानकारी प्राप्त करें। इन विद्वानों के समय जैनधर्म के मूल व सिद्धान्तविषयक, अनेक भ्रांतियां रहीं। इनमें से कुछ का समाधान हर्बर्ट बारेन ने किया, कुछ का याकोबी ने, और अनेक बिन्दुओं की व्याख्या उत्तरवर्ती विद्वानों ने की। ब्रिटेन का यह सारा अध्ययन मुख्यतः जैन ग्रंथों एवं यात्रा वृत्तान्तों पर आधारित रहा है। इतनी भूमिका बनने के बाद भी ब्रिटेन में जैनविद्या के प्रति रुचिपूर्वक उन्नयन कुछ दशकों तक मंथर ही रहा। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से यहां जैनविद्या संवर्धकों का नया युग प्रारम्भ होता है। इसमें सबसे पहला नाम वाइ. जे. पद्मराजैया का आता है, जिन्होंने "जैन थ्योरी आव नोलेज ऐंड रीयालिटी पर 1955 में ओक्सफोर्ड में पी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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