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विदेशों में जैन धर्म का संप्रसारण : (507)
नहीं है, उनके सिद्धान्तों की पाश्चात्य दृष्टिकोण से सकारात्मक एवं आर्कषक व्याख्या नहीं की जा रही है और उनका घर तो अभी भी अस्त-व्यस्त है, तब लगता है कि हमारे बहुविध प्रयत्नों ने अभी पश्चिमी सामान्य एवं विद्वतजनों तक प्रभावी पहुंच नहीं बना पाई है। पाल डुंडास तो लिखते हैं कि जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय पर जानकारी और शोध अब भी भयंकर रूप से उपेक्षित बनी हुई है। यही नहीं, 20वीं सदी के अनेक उपायों के अवलम्बन के बावजूद भी, विश्वधर्म की पुस्तकों में प्रायः वे ही मिथ्या एवं भ्रान्त धारणायें पाई जाती है, जो बीती सदी में थीं। इसका फलितार्थ यह है कि हमनें लोगों के समक्ष अपना लोकप्रिय, बुद्धिवादी, आकादमिक एवं मौलिक साहित्य समुचित भाषा एवं शब्दावली में प्रस्तुत एवं वितरित नहीं किया। इस कमी को दूर करने के प्रयास अभी भी नहीं हो पा रहे हैं। इसलिये समुचित साहित्य के प्रणयन एवं वितरण की महती आवश्यकता है क्योंकि साहित्य ही समाज का उन्नायक होता है।
उपरोक्त प्रवृत्तियों के विस्तारण एवं समुचित साहित्य प्रणयन एवं प्रसारण से ही अनेक लोगों का यह कथन सार्थक हो सकेगा कि अगली सदी जैनों की सदी होगी।
बीसवीं सदी में संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिये वाद-विवाद, चमत्कारिक घटनायें तथा धर्मान्तरण की प्राचीन विधियां अनुपयोगी हो गई हैं। हां, धार्मिक एवं शैक्षिक आयोजन और साहित्य की विविधा के संप्रसारण इस दिशा में कारगर हो रहे हैं। संचार माध्यमों से इनमें शीघ्रता एवं प्रभाविता भी बढ़ी है। वर्तमान में लगभग उपरोक्त 9 विधियां इस दिशा में प्रचलित हो रही हैं। इनका व्यापकीकरण होना चाहिये।
यह भी हमें ध्यान में रखना चाहिए कि शास्त्रीय युग की अपेक्षा आज धर्म संप्रसारण का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया है। आजकल तो प्रायः सभी सात महाद्वीप इसमें समाहित हो गये हैं। इस समय अनेक विश्वस्तरीय जैन संस्थायें बन रही हैं। सुशील मुनिजी की भी 'वर्ल्ड जैन कांग्रेस' नामक एक संस्था थी। इन्हें मुनि जी के सपने को साकार करना चाहिए। इसके मूर्त रूप लेने में आर्थिक बाधा ही महत्त्वपूर्ण है। यदि हमारे प्रतिष्ठाचार्य और साधुजन धार्मिक आयोजनों की आय का, ईसाईयों के समान, दस प्रतिशत भी प्रतिवर्ष इस मद में सदुपयोग करने का उपदेश दें, तो यह योजना सहज ही मूर्तरूप ले सकती हैं। इस राशि से उपरोक्त सभी विधियों का सक्षम अनुपालन भी किया जा सकता है।
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