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(506) : नंदनवन
स्थानीय बुलेटिन तो अगणित हैं। देश-विदेश में साधुओं और विद्वानों की धर्म-परिरक्षण एवं संवर्धन यात्रायें भी होने लगी हैं।
गुरुदेव चित्रभानु और मुनि सुशील कुमार के समान साधुओं ने भी इस दिशा में पिछले दो-तीन दशकों से महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। एक समय तो ऐसा भी आया जब मुनि सुशील कुमार जी विश्वस्तर पर जैन प्रतिनिधि माने जाने लगे थे। इस बीच, आचार्य तुलसी व अमर मुनि जी की शिष्यावली एवं अनेक भट्टारक भी इस दिशा में सक्रिय रूप से सामने आये। आचार्य विद्यासागर जी की शिष्यायें भी उस ओर हो आई हैं। विदेशों में जैन संस्थाओं के संगठनों के माध्यम से अनेक जैन विद्वान भी जैन पर्यों के समय एवं अकादमिक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में पश्चिम जाने लगे और अपने व्याख्यानों से जैनों में जैनत्व के परिरक्षण एवं जैनेतर जगत् में इसको प्रतिष्ठित करने में योगदान करने लगे। जैनों के एक अच्छे विद्वत् मण्डल ने द्वितीय विश्व-धर्म-संसद, 1993 में भाग लिया। कनाडा की जैन विद्या संगोष्ठी एवं पर्यावरण संगोष्ठी में भाग लिया। इस प्रकार, पिछले कुछ दशकों से साधु, भट्टारक, व्यापारी, व्यवसायी, शिक्षाविद् एवं विद्वानों ने - और अब तो अनेक विदेशवासी जैनों ने भी, जैन धर्म के सिद्धान्तों के जागतिक संचरण में योग देना प्रारम्भ किया है। इनके प्रयत्न अब कुछ फलीभूत होते दिख रहे हैं।
अनेक विश्वविद्यालयों (लेस्टर, लंदन, टोरंटो) आदि में जैन पाठ्यक्रम समाहित हुये हैं और अनेक देशों में जैनेतर विद्वान जैन धर्म के विभिन्न पक्षों पर शोध करने लगे हैं। डॉ. डुंडास, विलयम जोन, जॉन कोर्ट, भट्ट, मैडम कैया आदि के नाम इस क्षेत्र में प्रमुख रूप से लिये जा सकते है। जैन ग्रंथों के सरलता से उपलब्ध कराने के लिये एक पुस्तकालये पहले लुबाक में और अब कैलिफ्रेनियां में चालू हो गया है। अब विशिष्ट अवसरों पर भारतीय जैन विद्वानों का शैक्षिक भ्रमण एक नियमित आयोजन हो गया है।
इस कार्य में नई तकनीकों का उपयोग भी प्रारम्भ हो गया है जिनमें साधुओं एवं विद्वानों द्वारा रेडियो एवं दूरदर्शन पर प्रसारण एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन तो समाहित है ही, अब जैन धर्म से सम्बन्धित अनेक वेबसाइट भी चालू हो गये हैं। इन सब क्रियाकलापों से जैन धर्म को भूमण्डलीय प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी है।
धार्मिक एवं सामाजिक आयोजनों के रूप में नैरोबी, लेस्टर, टोरंटो, शिकागो, न्यूजर्सी आदि में पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं के अचरजकारी और आकर्षक आयोजनों से जैनत्व की प्रभावना में चार चांद लगे हैं।
इन सब प्रभावी प्रवृत्तियों के बावजूद भी, जब क्रामवेल क्राफोर्ड जैसे विश्रुत विद्वान यह लिखते हैं कि पश्चिम में अभी जैनों की विशिष्ट पहचान
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