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अध्याय - 16
अललित जैन साहित्य का अनुवाद : कुछ समस्यायें
जैनधर्म भारतीय संस्कृति का एक ऐसा बहुमूल्य, पारदर्शी एवं सप्तरंगी रत्न है जिसकी शोभा पिछले 2500 वर्षों के इतिहास में निरन्तर वर्धमान रही है। यही कारण है कि अब यह पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों के आदान-प्रदान व नवीन परिधान के सेतु के रूप में उभर रहा है। इसके सैद्धान्तिक तत्त्वों का विवरण भारत के प्राचीनतम साहित्य में उपलब्ध होता है। इसकी व्यापक प्रभावशीलता का अनुमान इसी से होता है कि भारत के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण सभी क्षेत्रों में इसके अनुयायी न केवल ईसा की पिछली उन्नीस सदियों से ही रहे हैं अपितु आज भी वे भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीय, सामाजिक एवं आर्थिक प्रतिष्ठा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। यही कारण है कि महावीर के पंचविंशति शती महोत्सव (1975-76) और भ. बाहुबली के सहस्राब्दि महोत्सव इतनी गरिमा के साथ राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाये गये हैं। इन उत्सवों पर आयोजित धर्मचक्र और जनमंगल कलश की योजनायें जैनधर्म के सार्वजनिक सिद्धान्तों को घर-घर तक पहुंचाने में अपूर्व साधक सिद्ध हुई हैं।
जैनधर्म के सिद्धान्तों में अनेक अपूर्वताएं हैं : समीचीन दृष्टि, परीक्षा प्रधानता, समभाव, स्वावलम्बन और श्रमणता। इनके समान ही जैन साहित्य भी अपूर्व है। इसमें कथायें हैं, लोकालोक विवेचन है, आचार-विचार का निरूपण है। यह भारत की अनेक भाषाओं में है। ईसापूर्व से इसका प्रवाह निरन्तर वर्धमान रहा है। यह साहित्य सामयिक जनभाषाओं में प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, दक्षिणी भाषायें और ढूंढिया तथा हिन्दी और अनेक प्रान्तीय भाषाओं में निर्मित हुआ है। इसका प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य धार्मिक सिद्धान्तों के अतिरिक्त तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा ऐतिहासिक विषयों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। यह साहित्य ललित कोटि का भी है और अललित कोटि का भी है। इधर पिछले कुछ वर्षों में ललित कोटि के साहित्य पर काफी काम हुआ है और वह भारतीय भाषाओं और अनेक प्रान्तीय भाषाओं मुख्यतः हिन्दी के माध्यम से प्रकाश में आया है। इस साहित्य का लालित्य तुलनात्मक रूप में प्रकट हुआ है। इसके अन्तर्गत
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