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पर्यावरण और आहार संयम : (487)
शिकार हो रहा है, कर्तव्य-अकर्तव्य की उसकी रेखायें धूमिल हो रही हैं। वह युद्धक और आक्रान्ता होता जा रहा है; दया, करुणा, एवं सर्वजीवसमभाव के बदले उसमें व्यक्तिवादी मनोवृत्ति अधिक पनपने लगी है। यह सब स्वस्थ व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के लिये हानिकारक है। मानव समाज के सुख शान्त जीवन के लिये हमें आहार पद्धति का समुचित चयन परिसीमन एवं नियन्त्रण करना होगा और इस प्रक्रिया को ही आहार संयम कहते हैं।
पर्यावरण-संरक्षण से सम्बन्धित दिशा निर्देशों के समान, जैन शास्त्रों में आहार-संयम के लिये भी पर्याप्त निर्देश दिये हैं जिनसे मानव स्वस्थ, सात्विक एवं शुभतर कार्यों में प्रवृत्त रह सके। वे संक्षेप में निम्न प्रकार हैं : 1. स्नेह, करुणा, दया, सर्वजीव-समादर एवं समभाव के लिये अहिंसक
जीवन शैली अपनाना (अहिंसा) 2. सत्विक शुद्ध अथवा दुग्ध-शाकाहारी बनना (अहिंसा) 3. अतिभक्षण, कुभक्षण एवं अभक्षण न करना (अहिंसा) 4. औषधीय उपयोगों के अतिरिक्त बहुहिंसी पदार्थों का सेवन न करना।
इसके अन्तर्गत मद्य, मांस, मधु, पंच उदुम्बर फल आदि आते हैं।
(अहिंसा) 5. अनावश्यक मात्रा में खाद्य समाग्री का संचय न करना (अपरिग्रह,
अनर्थदंड) 6. आवश्यकतानुसार पाचनतन्त्र की सुरक्षा संवर्धन एवं आन्तरिक ऊर्जा
वृद्धि हेतु एकाशन, उपवास, प्रोषध आदि का समय-समय अनुष्ठान
करना (अनशन, प्रोषधोपवास) 7. जितनी भूख हो, उससे कुछ कम (10 प्रतिशत) आहार लेना (ऊनोदरी) 8. शाकाहारी आहार के विविध व्यंजनों की संख्या का सीमन करना
(वृत्ति-परिसंख्यान) 9. गरिष्ठ आहार न करना (प्रणीत-रस-वर्जन) 10. 10. आसन, प्राणायाम, ध्यान एवं स्वाध्याय का निरन्तर अभ्यास करना
(अन्तरंग और बहिरंग तप)
इन विविध प्रवृत्तियों से आहार संयम करने से निम्न सुधार या लाभ होंगे। 1. आहार-संयम से आहार पाचन की क्रिया सन्तुलित होगी और
पाचन-गुणांक में पर्याप्त वृद्धि होगी। इससे शरीर तन्त्र की आन्तरिक ऊर्जा बढ़ेगी। जीवन, सात्विक, सक्रिय, उत्साहपूर्ण एवं आशावादी बनेगा। पूज्य सहज मुनि की दो सौ से अधिक दिन की एवं हीरालाल माणिक के चार सौ ग्यारह दिनों की उपवास-क्षमता इसी का परिणाम है जिससे विश्व के वैज्ञानिक भी विस्मित हुये हैं।
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