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________________ पर्यावरण और आहार संयम : (485) अविरत चले तो विश्व में नगण्य ही समस्यायें रहें। इसलिये आहार संयम सभी प्रकार की शुद्धियों का मूल स्रोत है। ___ मानव-जीवन तो क्या, प्राणि-जगत के जीवन के भौतिक संचालन, पोषण एवं विकास के लिये तथा भावात्मकतः आध्यात्मिक उन्नति हेतु उदात्त भावनाओं के पल्लवन एवं विकास के लिये आहार अनिवार्य है। इसका चयापचय हमें सामान्य और विशेष कार्य करने के लिये ऊर्जा प्रदान करता है। शास्त्रों में कहा है, "अन्न ही जीवन है।" जैन शास्त्रों में आहार के छह प्रमुख घटक बताये गये हैं : 1. अशन अन्न और दाने कार्बोहाड्रेट, प्रोटीन । 2. पान दूध, तेल, जल आदि। वसायें, जल 3. खाद्य मिष्ठान्न उपरोक्त से निर्मित 4. खाद्य मसाले, मुखशोधक खनिज, विटामिन 5. लेह्य चटनी, आचार आदि 6. लेप तैल आदि से मालिस ये वैज्ञानिकों की छह प्रमुख खाद्य कोटियों से तुलनीय हैं। इन खाद्यों में वायु का नाम नहीं है जबकि यह जीवन के लिये अनिवार्य है (संभवतः अधिसाधारण होने से इसका उल्लेख नहीं हो पाया है)। शास्त्रों में आहार के अंतर्ग्रहण के छह दृश्य एवं अदृश्य प्रकार बताये हैं जिनमें कवलाहार, ओजाहार, (उष्माहार, अवशोषण) और लेपाहार (विसरण) दृश्य हैं और बहुप्रचलित हैं। इनके अतिरिक्त, कर्म, नो कर्म (मूल प्रवृत्तियां-राग, द्वेष, मोह आदि) और मानसिक आहार भी अंतर्गहीत होते हैं जो हमारे मनोभाव एवं व्यवहारों को घनिष्ठतः प्रभावित करते हैं। आहार शास्त्री इन अतिरिक्त आहारों के लिये मौन हैं क्योंकि वे इन्हें मनोविज्ञान का विषय मानते हैं। पर्यावरण-सम्बन्धी उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हमारे आहार के सभी घटक पर्यावरण से ही प्राप्त होते हैं। शुद्ध पर्यावरण से प्राप्त घटक हमारे जीवन को भी शुद्ध एवं सात्विक बनाते हैं। "जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन' और 'जैसा पीवे पानी, वैसी होवे वानी की कहावतें इसी तथ्य की प्रतीक हैं। आज के प्रदूषित वातावरण में उत्पादित खाद्य भी प्रदूषित हो रहें हैं और उनमें विषाक्त एवं हानिकारक पदार्थों की मात्रा भी निरन्तर बढ़ रही है। ये खाद्य हमारे जीवन की सुरक्षा में व्याघात डालते हैं। हमारी मनोवृत्ति और प्रवृत्ति को प्रदूषित करते हैं। फलतः आहार-तन्त्र और पर्यावरण-तन्त्र एक दूसरे से घनिष्ठतः सम्बन्धित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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