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________________ (472) : नंदनवन नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि इसके पूर्व कुछ प्रतिबन्धों के साथ सचित्त पदार्थ खाये जा सकते थे। कच्चे दूध और उससे प्राप्त उत्पादों के अभक्ष्य होने से उबले दूध के उत्पादों को हम भक्ष्य मान लेते हैं। फलों में केवल आम, केला और सूखे मेवे ही भक्ष्य के रूप में बचते हैं। सुखाई गई या परिरक्षित सब्जियां भी ऋतु में कौन खाता है ? बाद में वे समय सीमा पार कर अभक्ष्य ही हो जाती हैं। फलतः जैन आहार अनिवार्य (खनिज, विटामिन, हॉर्मोन आदि) घटकों की दृष्टि से अपूर्ण रहेगा। साथ ही, फल - मेवे पाचन में गरिष्ट हैं, खोवा, मलाई एवं घृत-तैल पक्व पदार्थ भी गरिष्ट होते हैं । श्रावकों का सामान्य व्यवसाय (आधुनिक अपवादों को छोड) भी श्रमसाध्य नहीं होता । अतः अनेक क्षेत्रों के श्रावक मुटापे के रोग से ग्रस्त होते हैं। उनकी पाचन शक्ति भी क्रमशः दुर्बल होने लगती है। इस स्थिति से उबरने का उपाय यही है कि हम अपने शास्त्रीय आहार शास्त्र में आधुनिक वैज्ञानिक तथ्य समाहित करें और अल्पमात्रिक घटकों वाले रुचिकर, अनुकूल एवं हितकारी पदार्थों को सामान्य भक्ष्यता की कोटि में समाहित करें। यही नहीं, किण्वन से प्राप्त हितकारी खाद्यों को भक्ष्यता की कोटि में लाएं। इस दिशा में 'तीर्थकर ने आहार विशेषांक के रूप में एक प्रयोग किया है। लेकिन इसमें वैज्ञानिक आहार शास्त्र की ही प्रमुखता है। यदि इसमें शास्त्रीय आहार शास्त्र के समीक्षापूर्वक सुझाव दिये जाते, तो उनकी उपयोगिता अधिक होती। इससे तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह औद्योगिक प्रगति और परिवेश को नकार कर हमें पलायन की मनोवृत्ति की ओर प्रेरित करता है। क्या हम कुन्दकुन्द के मत का अनुसरण न करें जहां उन्होनें श्रावकों को देश, काल, श्रम और क्षमता के आधार पर अन्योन्यनिरपेक्ष उत्सर्ग और अपवाद पर ध्यान न देते हुए विचारपूर्वक आहार की अनुज्ञा दी है ? सन्दर्भः 1. 2. 3. 4. आचारांग - चूला, आगम प्र. समिति, ब्यावर, 1980, पृ. 78, 88. 5. मुनि नथमल (सं.); दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन-, तेरापन्थी महासभा, आचारांग - चूला, आगम प्र. समिति, ब्यावर, 1980 पृ. 75,88 समन्तभद्रः रत्नकरंडक श्रावकाचार, क्षीरसागर ग्रंथमाला, 1960, पृ.48 जगन्मोहनलाल शास्त्री; श्रावकधर्मप्रदीप, वर्णी ग्रंथमाला, काशी, 1980, पृ. 107 कलकत्ता, 1967, पृ. 113-118 मुनि नथमल उत्तराध्ययन, पृ. 388 आचारांग - चूला, आगम प्र. समिति, ब्यावर, 1980 पृ. 78, 88 शांतिसूरीश्वर जीवविचारप्रकरण, जैन मिशन सोसाइटी, मद्रास, 1980ए पृ. 34-60 देखें सन्दर्भ 8, पृ. 34-60. 9. 10. साध्वी मंजुलाश्री अनुसंधान पत्रिका (अंक-3), जैन विश्व भारती, लाडनूं, पृ. 53 11. कुन्दकुन्दाचार्य; प्रवचनसार, पाटनी ग्रन्थमाला, मारोठ, 1956, पृ. 277, 281 6. 7. 8. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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