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________________ (420) : 5-6 7-8 नंदनवन क्षिप्र और अक्षिप्र अनिःसृत और निःसृत 9-10 11-12 अभिप्रेत या कथित पदार्थ बोधक पदार्थ की एक रूपता व परिवर्तनीयता का द्योतक इन विशेषताओं को देखने से पता चलता है कि मतिज्ञान से पदार्थ के केवल स्थूल गुणों का ही ज्ञान होता है, आन्तरिक संघटन या अन्य नैमित्तिक गुणों का नहीं। इससे हमें प्राचीन मतिज्ञान की सीमा का भी ज्ञान होता है। यही नहीं, उपरोक्त बारह विशेषताओं में अनेक में पुनरुक्ति प्रतीत होती है, जिनका संतोषजनक समाधान शास्त्रीय भाषा से नहीं मिलता। फिर भी, मतिज्ञान के 12 x 4x6 (5 इन्द्रिय + 1 मन) = 288 और व्यंजनावग्रह के 12x4 (चार इंद्रिय) = 48 = 336 भेद शास्त्रों में पाये गये हैं। इससे सीमित मतिज्ञान की पर्याप्त असीमता का पता चलता है। इसकी तुलना में, यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्मतर निरीक्षण क्षमता के इस उपकरण प्रधान युग में मतिज्ञान की सीमा में काफी वृद्धि हो चुकी है। अब इससे बहिरंग के अवग्रहादिक के साथ अंतग्रहादिक भी सम्भव हो गये हैं। मतिज्ञान के क्षेत्र में पिछले दो सौ वर्षों के विकास ने हमारे पदार्थ विषयक शास्त्रीय विवरणों को काफी पीछे कर दिया है। अनुक्त और उक्त ध्रुव और अध्रुव वेग शील और मन्द पदार्थों का बोधक अप्रकट या ईषत् प्रकट और प्रकट पदार्थ बोधक ज्ञान के क्षितिजों एवं सीमाओं का विकास यह बताया जा चुका है कि सामान्यजन की ज्ञान-प्राप्ति दो प्रकार के ज्ञानों से होती है- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञान की परिभाषा शास्त्रों में अनेक प्रकार से की गई है। कुछ लोग श्रवणेन्द्रिय प्रधानता के आधार पर श्रुत को मतिज्ञान मानना चाहते हैं, पर यह सही नहीं है। अकलंक ने साहचर्य, एकत्रावस्थान, एकनिमित्तता, विषय साधारणता तथा करण कार्य सदृशता के आधार पर मति श्रुत की एकता का खंडन करते हुए बताया है कि श्रुतज्ञान मनोप्रधान है, इन्द्रियप्रधान नहीं। वह त्रिकालवर्ती तथा अपूर्व विषयों का भी ज्ञान कराता है। उसमें बुद्धिप्रयोग के कारण पदार्थों की विशेषताओं, समानताओं एवं विषमताओं के अपूर्व ज्ञान की भी क्षमता है । यह सही है कि श्रुतज्ञान का आधार मतिज्ञान ही है, लेकिन यह देखा गया है कि श्रुतज्ञान भी मतिज्ञान की सीमायें बढ़ाने में सहायक होता है। शास्त्री ने श्रुतज्ञान से भी श्रुतज्ञान की भी औपचारिक उत्पत्ति मानी है। इसीलिये जो सुना जाय, जिस साधन से सुना जाय या श्रवण किया जाय मात्र को पूज्यपाद और श्रुतसागर ने श्रुत कहा है। अकलंक ने इस परिभाषा में एक पद और रखा - श्रूयते स्मेति, जो सुना गया हो, वह भी श्रुत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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