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________________ (418) : नंदनवन बढ़ता है। श्रुतज्ञान स्वयं या दूसरों के, मतिज्ञान स्वयं का अपना प्रयोग और दर्शनजन्य ज्ञान है। एक वैज्ञानिक भी इन्हीं दो ज्ञानों से वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रारम्भ, विकास और पुनर्निर्माण करता है। श्रुतसागर सूरि ने बताया है कि यह ज्ञानमार्ग ही हमारे लिये सरल, परिचित और अनुभवगम्य है। मतिज्ञान के नाम ___मैं सर्वप्रथम अपने द्वारा प्राप्त ज्ञान-मतिज्ञान की बात करूं। उमास्वामी ने इसके अनेक नाम बताये हैं- स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध आदि। आगम ग्रन्थों में मति के बदले अभिनिबोध का ही नाम आता है, कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम मतिज्ञान के नाम से इसका निरूपण किया। उमास्वामी के अनुसार इसके अंतर्गत अनेक मनोप्रधान या बुद्धिप्रधान प्रवृत्तियां भी मति में ही समाहित होती हैं। यह वर्तमान को ग्रहण करता है। इस आधार पर स्मृति आदि को मतिज्ञान नहीं माना जाना चाहिये था। क्योंकि इनमें अतीत का भी सम्बन्ध रहता है। अकलंक ने इन्हें मनोमति मान कर सामान्य मतिज्ञान के रूप में ही बताया है। वस्तुतः इस आधार पर स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क, कार्यकारण-भाव), और अभिनिबोध (अनुमान व्याप्ति-ज्ञान) को जिन दार्शनिकों ने पृथक् प्रमाण माना है, उसका निरसन कर जैनों ने इन सभी को मतिज्ञान में समाहित कर लिया। भट्टाचार्य ने चिन्ता और अभिनिबोध को वर्तमान आगमन और निगमन तर्कशास्त्र के समरूप बताकर पाश्चात्य तर्कशास्त्र की मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया है। उमास्वामी ने मतिज्ञान के अनर्थान्तरों के दिग्दर्शक सूत्र की टीकाओं में अनर्थन्तरत्व (पर्यायवाची) पद पर अनेक प्रकार के प्रश्नोत्तर किये हैं। वे इसी सूत्र में वर्णित 'इति' शब्द को इत्यादि वाचक मानते हैं, और मतिज्ञान के कुछ अन्य पर्यायवाची भी बताये हैं- इनमें प्रतिभा, मेधा, प्रज्ञा समाहित हैं। इन सभी पर्यायवाचियों के विशेष लक्षण पूज्यपाद ने तो नहीं दिये हैं। अकलंक और श्रुतसागर ने दिये हैं। इनके अनुसार, मतिज्ञान के इन विभिन्न नामरूपों से उसकी व्यापकता तथा क्षेत्रीय विविधता का स्पष्ट आभास होता है क्योंकि प्रत्येक नाम एक विशिष्ट अर्थ और वृत्ति को प्रकट करता है। मतिज्ञान की प्राप्ति के चरण सामान्यजन को मतिज्ञान कैसे उपलब्ध होता है ? इस विषय पर ध्यान जाते ही दूसरी सदी के उमास्वामीकृत 'तत्त्वार्थसूत्र' का 'अवग्रहेहावायधारणाः' (1,15) सूत्र स्मरण हो आता है। यद्यपि आगम ग्रन्थों मे भी इनका उल्लेख पाया जाता है, (इससे इसकी पर्याप्त प्राचीनता सिद्ध होती है, पर साधारणजन के लिये तो' तत्त्वार्थसूत्र' ही आगम रहा है। सचमुच में, सैद्धान्तिक आधार पर यह सूत्र एवं इसकी मान्यता सर्वाधिक वैज्ञानिक है। इस मान्यता में ज्ञान प्राप्ति के वे ही चरण बताये गये हैं जो आज के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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